मेरे ब्लॉग 'धरोहर' पर ताजा प्रविष्टियाँ
Wednesday, May 13, 2009
"गांधीजी से डर किन्हें है"
Thursday, May 7, 2009
'गाँधीजी' और अपनी बात
यह ब्लॉग शुरू करने का मेरा उद्देश्य था कि गांधीजी के विचारों को आज के परिप्रेक्ष्य में रख पाठकों को खुद ही उनकी प्रासंगिकता के सम्बन्ध में निर्णय लेने का विकल्प दे सकूँ. फिर भी बीच -बीच में स्वयं भी आपसे मुखातिब होने की स्थितियां आ ही जाती हैं, और यह परस्पर संवाद के दृष्टिकोण से संभवतः उचित भी है.
प्रतिष्ठित पत्रिका 'आजकल' के जनवरी 2009 अंक में श्री महेंद्र राजा जैन जी का लेख 'महात्मा गाँधी- पिता बनाम राष्ट्रपिता' प्रकाशित हुआ था। इसमें उन्होंने फिल्म 'गाँधी: माई फादर' के माध्यमसे गांधीजी के व्यक्तित्व के एक जटिल पहलू की समीक्षा का प्रयास किया था. निश्चय ही फिल्म काफी साहसिक और भावपूर्ण है, तथा इसकी समीक्षा भी अच्छी की गई है. किन्तु क्या सिर्फ एक फिल्म गाँधी जी जैसे व्यक्तित्व का आईना हो सकती है! एक राष्ट्रपिता की सफलता के पीछे छुपी एक पिता की असफलता को हाईलाइट करने पर आज के प्रगतिशीलों (!) का इतना आग्रह क्यों है ? गांधीजी की जीवन यात्रा एक आम मानव से महामानव बनने की यात्रा है, जो उनके 'सत्य के साथ प्रयोग' से ही स्पष्ट है. तो फिर उनके व्यक्तिगत जीवन में जबरन तांक-झाँक कर जुगुप्सा जगाने और कहीं छुटी गर्द को ज़माने को चीख-चीख कर दिखाने का औचित्य समझ नहीं आता. यदि आप उस धुल को साफ़ नहीं कर सकते तो और कीचड़ फेंक उसका मजमा लगाने का प्रयास क्यों ? व्यावहारिक रूप से भी देखें तो हरिलाल की असफलता के लिए क्या सिर्फ गांधीजी ही दोषी थे! तब फिर आज के अन्य स्टार पिताओं के गुमनाम सुपुत्रों के बारे में क्या राय है आपकी?
अपनी प्रतिक्रिया मैंने पत्र के माध्यम से संपादक तक पहुंचाई थी जो मई, 2009 अंक में प्रकाशित की गई है। मैंने इसमें यह भी कहा कि गांधीजी पर गोली दागने का सिलसिला 60 साल बाद भी जारी है, जो दुखद है.
इस पोस्ट तथा पत्र में यह मेरी व्यक्तिगत प्रतिक्रिया है और इससे किसी को ठेस पहुँचने की स्थिति में मुझे खेद भी है, किन्तु जहाँ तक मैं समझता हूँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार गांधीजी के समर्थकों को भी उतना ही है.....