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Wednesday, March 17, 2021

दांडी मार्च पर भ्रामक प्रचार और गांधी जी की स्पष्टता

ब्रिटिश हों या कोई भी वर्ग गांधी जी उसकी मनःस्थिति को समझते हुए उसके मानसिक धरातल पर उतर कर उसकी आशंकाओं को दूर करने का प्रयास करते थे। नमक आंदोलन चूंकि अंग्रेजी शासन से असहयोग की दिशा में पहला बड़ा कदम था इसलिए इसके राजनीतिक प्रभावों को लेकर लोगों के पृथक मत भी थे। ऐसे ही एक मत के रूप में मौलाना शौकत अली ने कहा कि स्वतंत्रता आंदोलन स्वराज्य प्राप्ति का नहीं बल्कि मुसलमानों के खिलाफ हिंदू राज्य स्थापित करने का आंदोलन है और इसलिए मुसलमान इससे अलग ही रहें। खबर पढ़ गांधी जी ने उनसे तार के माध्यम से पुष्टि मांगी और मिलने पर इस आंदोलन पर एक गंभीर आरोप के निराकरण का प्रयास किया। यह प्रयास एक आंदोलन को सर्वस्वीकार्य बनाने, सभी की भागीदारी सुनिश्चित करवाने के प्रयास को दर्शाता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह आंदोलन न तो हिंदू राज्य की स्थापना के लिए है न मुस्लिमों के खिलाफ। नमक जैसी सामान्य किन्तु सर्व महत्व की सामग्री को एक आंदोलन का माध्यम बनाने की दूरदर्शिता इससे भी झलकती है कि नमक का इस्तेमाल सभी करते हैं और इसपर कर का प्रभाव भी सभी पर पड़ता है। इसी तथ्य को रेखांकित करते उन्होंने कहा कि इस कर का विरोध करने से किसी की हानि होने वाली नहीं है, परंतु यदि यह विरोध सफल हुआ तो इसका लाभ सभी को समान रूप से मिलेगा। हाँ, इस आंदोलन में भाग लेने का अधिकार सभी का है। मौलाना साहब द्वारा उनपर तीखी टिप्पणी का भी स्पष्ट प्रत्युत्तर देते हुए उन्होंने महत्वपूर्ण बात कही। 'यंग इंडिया' में अपने एक लेख के माध्यम से उन्होंने कहा कि- "जहां तक खुद मुझसे मौलाना साहब की चिढ़ की बात है इसके संबंध में मुझे ज्यादा-कुछ कहने की जरूरत नहीं है। चूंकि मेरे मन में उनके प्रति कोई चिढ़ नहीं है, इसलिए मैं यह भविष्यवाणी करता हूं कि जब उनका क्रोध शांत हो जाएगा और वे देखेंगे कि उन्होंने मुझे जिन अनेक दोषों का भागी माना है उनका दोषी मैं नहीं हूं तो वे फिर मुझको 'अपनी उसी जेब' में रख लेंगे जिस जेब में रहने का सौभाग्य मुझे मानो अभी कल तक प्राप्त था। क्योंकि उनकी जेब से मैं खुद बाहर नहीं आया हूँ। उन्होंने ही मुझे उसमें से निकाल फेंका है। मैं तो आज भी वही नन्हा-सा आदमी हूं जो 1921 में था। अंग्रेजों के प्रतिनिधियों ने हमारे खिलाफ जो ढेर सारे अन्याय किए हैं उस ढेर में अंग्रेज लोग भले ही और भी वृद्धि कर डालें, किन्तु मैं उनका शत्रु नहीं बन सकता। इसी प्रकार मैं मुसलमानों का भी दुश्मन कभी नहीं बन सकता, चाहे उनमें से कोई एक या बहुत-से लोग मेरे अथवा मेरे लोगों के साथ चाहे जैसा व्यवहार करें। मनुष्य की कमियों से मैं इतनी अच्छी तरह वाकिफ हूं कि किसी भी आदमी के खिलाफ, चाहे वह कुछ भी करे, मेरे मन में चिढ़ हो ही नहीं सकती। मेरा उपचार तो यह है कि जहां-कहीं बुराई दिखाई दे, उसे दूर करने की कोशिश करूँ और जिस प्रकार मैं नहीं चाहूंगा कि मुझसे बार-बार जो गलतियां होती हैं उनके लिए कोई मुझे चोट पहुंचाए उसी प्रकार से मैं खुद भी बुराई करनेवालों को चोट पहुंचाना नहीं चाहूंगा।

Monday, March 15, 2021

दांडी यात्रा की वर्षगांठ

आजादी की 75 वीं सालगिरह पर आयोजित 'अमृत महोत्सव' की शृंखला में पूरे देश में कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते रहेंगे। इस कड़ी में मेरा भी एक अंशदान गांधी जी, दांडी यात्रा और आजादी के आंदोलन से जुड़े कुछ और विषयों पर चर्चा का भी... गांधी जी किसी भी कार्य में स्पष्टवादिता के हिमायती थे। उनकी यही स्पष्टता उनके आंदोलनों की तैयारियों में भी झलकती थी। नमक आंदोलन या दांडी यात्रा आरम्भ करने से पूर्व भी उन्होंने 2 मार्च को वायसरॉय लॉर्ड इरविन को पत्र लिखा। पत्र के आरंभ में उन्होंने आंदोलन से पूर्व समझौते का रास्ता निकल आने के प्रयास का जिक्र किया। इसी पत्र में उन्होनें समस्त अंग्रेजों से नहीं बल्कि अंग्रेजी शासन की शोषण प्रणाली से आई दरिद्रता के प्रति अपनी नाराजगी का जिक्र किया।
उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि वर्तमान सरकार दुनिया में सबसे ख़र्चीली है और इसे बनाये रखने की गरज से ही ये सारे अन्याय किये जा रहे हैं। जिस देश में हर एक आदमी की औसत रोजाना आमदनी दो आने से भी कम है उसमें आपको रोजाना 700 रु से भी अधिक मिलते हैं। उधर इंग्लैंड के बाशिंदों की औसत दैनिक आय लगभग दो रु है और वहां के प्रधानमंत्री को रोजाना सिर्फ 180 ही मिलते हैं। इस तरह आप अपनी तनख्वाह के रूप में 5000 से अधिक भारतीयों की औसत कमाई का हिस्सा ले लेते हैं, उधर इंग्लैंड के प्रधानमंत्री सिर्फ 90 अंग्रेजों की कमाई ही लेते हैं।... एक कठोर लेकिन सच्ची हकीकत को ठीक से समझाने के लिए मुझे आपका व्यक्तिगत उदाहरण पेश करना पड़ा है, नहीं तो निजी तौर पर मेरे दिल में आपके लिए इतनी इज्जत है कि मैं ऐसी कोई बात आपके बारे में नहीं कहना चाहूंगा जिससे आपके दिल को ठेस पहुंचे।..." और फिर प्रत्युत्तर में उन्हें वायसराय के निजी सचिव का पत्र मिला जिसमें उन्होंने लिखा कि उन्हें यह जानकर बहुत दुख हुआ कि आप एक ऐसा रास्ता अख्तियार करने जा रहे हैं जिससे स्पष्टतः कानून भंग होगा और सार्वजनिक शांति खतरे में पड़ जाएगी। प्रतिक्रिया में गांधीजी का विचार था कि- "...यदि वायसरॉय चाहते तो गरीबों को नमक पर जो कर चुकाना पड़ता है, उसे समाप्त करके मुझे निष्क्रिय बना दे सकते थे। इस कर को चुकाने में उन्हें प्रति वर्ष 5 आने अर्थात लगभग अपनी तीन दिन की कमाई देनी पड़ती है। मैं तो नहीं जानता कि भारत के अलावा किसी और देश में भी किसी को यदि उसकी सालाना आमदनी 360 रु हो तो 3 रुपये कर स्वरूप दे देने पड़ते हों।... वे उस राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करते हैं जो आसानी से हार नहीं मानता, सहज ही अपने किए पर पश्चाताप नहीं करता। अनुनय- विनय से उसका हृदय नहीं पिघलता। शारीरिक शक्ति का दबदबा वह तुरंत स्वीकार करता है। वह मुक्केबाजी के किसी दंगल को घंटों तक सांस रोक कर बिना थके-ऊबे हुए देख सकता है।... हम चाहे जितनी जोरदार और कायल करने वाली दलील दें वह उससे प्रभावित होकर उन करोड़ों रुपयों की ओर से मुंह नहीं मोड़ सकता जो वह प्रतिवर्ष भारत से लूट कर ले जाता है। सो वायसरॉय महोदय के उत्तर से मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ।..." और फिर उस महान पदयात्रा के आह्वान का वक्त भी आ गया। साबरमती आश्रमवासियों और अपने सहयात्रियों को उन्होंने संबोधित करते हुए कहा- "...अपने सिर पर भारी जिम्मेवारी लेकर रवाना होने वाले हम आश्रमवासियों के पास एक ही पूंजी है। हम विद्वता की डींग तो हांक नहीं सकते। हमने जो व्रत लिए हैं और आश्रम जीवन की प्रतिज्ञा की है, हमें उन व्रतों का ही पालन करते रहना है। ये 72 लोग आश्रम-नियमावली को फिर से जांच लें और अपने जाने, न जाने की बात पर विचार कर लें। जिन आश्रमवासियों का कोई आश्रित है उसके लिए उन्हें आश्रम से पैसा नहीं मिल सकता। आश्रम के भरोसे किसी को इस लड़ाई में भाग नहीं लेना चाहिए। यह लड़ाई नाटक नहीं है; बल्कि यह आखिरी लड़ाई है। यदि उपद्रव हुआ तो हम अपने ही लोगों के हाथों मारे जा सकते हैं। उस हालत में भी हम तो सत्याग्रही के नाते अपना काम पूरा कर चुके होंगे... यदि हममें इतनी शक्ति न हो तो हमें इस लड़ाई में भाग नहीं लेना चाहिए। ... आप या तो मर कर या स्वराज्य लेकर ही लौटेंगे... यदि आश्रम में आग लग जाए तो भी हम वापस नहीं लौट सकते। केवल वही लोग इस कूच में भाग ले सकते हैं जिनका अपने सगे- संबंधियों के प्रति कोई विशेष कर्तव्य नहीं है।... हम जीवन-मरण का धर्मयुद्ध करने जा रहे हैं, एक व्यापक यज्ञ करने जा रहे हैं, जिसमें हम अपनी आहुति दे देना चाहते हैं। यदि आप लोग अक्षम सिद्ध होंगे तो लज्जा का भागी मैं होऊंगा, आप लोग नहीं। मुझे भगवान ने जो शक्ति दी है वह आप सब में भी है। आत्मा-मात्र एक है। मेरी आत्मा जागृत हो चुकी है, अन्य लोगों की आंशिक रूप से जागृत हुई है।"
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