मेरे ब्लॉग 'धरोहर' पर ताजा प्रविष्टियाँ

LATEST:


विजेट आपके ब्लॉग पर

Friday, June 11, 2021

7 जून: महात्मा गांधी का प्रिटोरिया में आत्मसाक्षात्कार की रात

1893 की 7 जून ही वह तारीख़ थी जब नियति ने मोहनदास करमचंद गांधी को अपने जीवन के वास्तविक अर्थ की तलाश में आगे बढ़ने को प्रवृत्त किया था, या यूं कहें कि उन्हीं की मान्यतानुसार ईश्वर ने अपने काम के लिए उन्हें चुन लिया था।

एक दुबला-पतला कमजोर व्यक्ति, धार्मिक एवं अन्य मानसिक बेड़ियों में जकड़ा हुआ भी, एक साम्राज्यवादी देश के उपनिवेश के सामान्य से निवासी ने शायद ही कभी सोचा हो कि उसे जीवन में कभी इतनी बड़ी भूमिका भी निभानी होगी। शासक मुल्क की श्रेष्ठता से प्रभावित वह भी तो उसकी भाषा, तौर-तरीके, रंग-ढ़ंग सीखने की ही कोशिश कर रहा था। उस समाज में शामिल होने के लिये आवश्यक गुणों को सीखने के प्रयास का जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी किया ही है।


बैरिस्टर बन कर उसे महसूस हुआ होगा कि वो अब उस वर्ग के और करीब आ गया है। लेकिन हमेशा ट्रेन के फर्स्ट क्लास में सफ़र करने वाले इस युवा वकील को टिकट और सारे अधिकार रहते प्रिटोरिया में जो अनुभव हुए उसने इस साम्राज्य के प्रति अब तक की धारणा को पूरी तरह बदल दिया।



वो समझ गए कि शासक और शासित में जमीन-आसमान का अंतर है, उनके रंगभेद की भावना कपड़ों और डिग्री के आधार पर भी कोई अंतर नहीं देखती। उनके लिए सभी काले सिर्फ काले हैं और कुछ नहीं।


मेरी नज़र में तो यह रात उनकी समाधि और आत्ममंथन की रात थी। इस रात उनके जीवन में वह प्रकाश आया जिसमें उन्हें अपने जीवन को आगे ले जाने की दिशा मिली।


अपनी आत्मकथा में इस पल को याद करते हुए उन्होंने लिखा कि-
मैंने अपने धर्म का विचार किया : ' या तो मुझे अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए या लौट जाना चाहिए , नहीं तो जो अपमान हों उन्हें सहकर प्रिटोरिया पहुँचना चाहिए और मुदकमा खत्म करके देश लौट जाना चाहिए । मुकदमा अधूरा छोड़कर भागना तो नामर्दी होगी । मुझे जो कष्ट सहना पड़ा है , सो तो ऊपरी कष्ट है । वह गहराई तक पैठे हुए महारोग का लक्षण है । यह महारोग है रंग - द्वेष । यदि मुझमें इस गहरे रोग को मिटाने की शक्ति हो , तो उस शक्ति का उपयोग मुझे करना चाहिए । ऐसा करते हुए स्वयं जो कष्ट सहने पड़ें सो सब सहने चाहिए और उनका विरोध रंग - द्वेष को मिटाने की दृष्टि से ही करना चाहिए । '
लक्ष्य के प्रति निश्चय तो वो कर ही चुके थे मगर नियति ने उन्हें शासकों की मानसिकता से परिचित करवाने के और भी अवसर रख छोड़े थे।


चार्ल्सटाउन से जोहान्सबर्ग जाते उन्हें घोड़ागाड़ी से जाना था, जिसमें फिर एक बार एक 'कुली' को अन्य यात्रियों के साथ बैठने नहीं दिया गया। उन्हें कोचवान की बगल में बाहर बैठाया गया। इसके बाद भी जब घोड़ा गाड़ी के गोरे अधिकारी को सिगरेट पीने और बाहर की हवा खाने की तलब लगी तो उसने उनसे कोचवान के पैरों के पास बैठने को कहा। इसे उन्होंने स्वीकार करने से इंकार कर दिया। बदले में उन्हें गालियों के साथ बुरी तरह से मारा भी गया, इतना कि अन्य यात्रियों को दया आ गई। यात्रियों की आलोचना ने गोरे को इतना आक्रोशित कर दिया था कि वो उन्हें आगे मजा चखाने की धमकी देता रहा और इधर गांधी जी को यह आशंका हो रही थी कि वो जिंदा मक़ाम तक पहुंच सकेंगे भी या नहीं...!


इन अनुभवों ने रंगभेद और इससे अन्य हिंदुस्तानियों की पीड़ा को समझने के लिए उन्हें और संवेदनशील बनाया। यहां से उनके जीवन में एक बड़ा मोड़ तो आया पर यह भी गौरतलब है कि अपनी, पीड़ा, आक्रोश और क्रोध को उन्होंने मात्र कुछ लोगों से बदला लेने में खर्च नहीं कर दिया, जबकि एक वकील के रूप में भी वो ऐसा कर सकते थे। उन्होंने इसे एक बड़ा रुप दिया। अंग्रेजों से व्यक्तिगत द्वेष न रखते हुए उन्होंने उनके साम्राज्यवादी और रंगभेद नीति का विरोध किया। ट्रेन के तीसरे दर्जे में बैठने को भी उन्होंने प्रतीकात्मक प्रतिरोध का माध्यम बना दिया।


आज उनकी आलोचना इसलिए भी आसान है क्योंकि वैसे किसी आदमी के होने की कल्पना भी वाकई मुश्किल है...
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...