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Sunday, August 30, 2009

फिर होगी मुलाकात - गांधीजी के साथ


जनवरी 2009 से जारी गांधीजी के विचारों पर आधारित यह श्रंखला अब एक अल्पविराम की ओर अग्रसर है। आशा है वक्त और परिस्थितियां अनुकूल रहीं तो यह चर्चा नए सिरे से पुनः आरम्भ होगी। गांधीजी पर विवादों के इस फैशनेबल दौर में इस ब्लॉग और इसमें व्यक्त विचारों को जिस प्रोत्साहन के साथ आपने स्वीकारा, आभारी हूँ। इस ब्लॉग को आरम्भ करने के पीछे मेरा प्रयास गांधीजी के विचारों की प्रासंगिकता पर चर्चा तथा इसमें अधिक-से-अधिक लोगों को शामिल करने का था। इसीलिए सिर्फ इसी ब्लॉग के लिए मैंने कई ब्लौगर्स से व्यक्तिगत संपर्क भी किये। ब्लॉग की बेहतर प्रस्तुति और नियमितता में कई ब्लौगर्स के सुझावों तथा प्रोत्साहन का महत्वपूर्ण योगदान रहा। आप सभी की सक्रियता तथा उत्साहवर्धन का धन्यवाद।

Thursday, August 27, 2009

मुन्नाभाई और गांधीजी


ब्लॉगजगत से अंशकालिक विराम लेने से पूर्व गांधीजी के विचारों पर जारी चर्चा को एक खुबसूरत मोड़ पर लाकर छोड़ना ही उचित समझता हूँ। क्या कभी हममें से किसी ने सोचा कि मुन्नाभाई एम. बी. बी. एस. जैसी ताजगी भरी, उम्दा और सफल फिल्म बनाकर विधु विनोद चोपडा और राजकुमार हिरानी की जोड़ी ने गांधीजी की पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्म ही क्यों बनाई ! मुन्नाभाई जैसी साफ़-सुथरी, पूरे परिवार के साथ देखे जा सकने वाली और अत्यंत सफल फिल्में हिंदी सिनेमा में कम ही बनती हैं. ऐसे में इस टीम के समक्ष अपनी सफलता को दोहराना और वो भी बिना किसी समझौते के एक बड़ी चुनौती थी। फिल्म की सफलता से एक हद तक तो समझौता किया जा सकता होगा, मगर इसके स्तर से समझौते की कोई गुंजाईश नहीं रही होगी. ऐसे में इस टीम को गांधीजी की याद का आना स्वाभाविक ही था। गांधीजी आज भी इस देश में एक ऐसा नाम है, जिस पर आम आदमी की काफी श्रद्धा है। गांधीजी के विचारों को आमआदमी तक उसीकी शैली में पहुँचाने में जहाँ यह फिल्म काफी सफल रही, वहीँ इसने गांधीजी को बौद्धिक और बोझिल चर्चाओं से मुक्ति भी दिलाई।
इसी मन्त्र में रहस्य छुपा है फिल्म की सफलता और गांधीजी के विचारों की सार्थकता का। गाँधी विचार को बौद्धिक परिचर्चा की चारदीवारी से बाहर निकाल आमजन तक सरल लहजे में पहुँचाना ही इस देश को नए सिरे से एक सूत्र में पिरोने, वास्तविक भारतप्रेम जागृत करने में सहायक सिद्ध होगा।
आज गांधीजी हमारे बीच नहीं हैं, मगर उनके मार्ग को सफलतापूर्वक अपना कई लोगों का जीवन बदल देने वाले कई अल्पचर्चित चेहरे उन्हीं से उर्जा पा रहे हैं। अन्ना हजारे, राजेन्द्र सिंह, बहुगुणा, बाबा आप्टे जैसी कई महानात्माएं है - जिन्होंने साबित कर दिया है कि गांधीजी के विचार सदा सर्वदा प्रासंगिक रहेंगे, बस उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में आम जनता तक पहुँचाने की जरुरत है।
इस पोस्ट के माध्यम से ऐसे ही सच्चे और सार्थक प्रयासों को नमन करता हूँ।

Friday, August 21, 2009

जिन्ना प्रशस्ति: और गांधीजी से चंद सवाल

(नोट- किसी भी पाठक की राष्ट्रवादी आस्था को ठेस पहंचने की स्थिति में अग्रिम खेद सहित)
गाँधी और नेहरु ने देश के बंटाधार में अपना कितना अमूल्य योगदान दिया है यह तो हमारे महान राष्ट्रवादी तत्त्व हमें 80 वर्षों से स्मरण कराते ही आ रहे हैं। ताजातरीन योगदान इनका स्वतंत्रता संग्राम में कायदे-आजम जिन्ना साहब की भूमिका को लेकर है। श्रद्धांजलि, पुण्य स्मरण जैसे व्यावहारिक कार्यक्रमों के आगे बढ़कर अब पुस्तक द्वारा आजादी के संघर्ष में जिन्ना साहब की महत्वपूर्ण भूमिका को विस्तार से स्पष्ट किया जा रहा है। इसी क्रम में संभवतः पहली बार देश विभाजन के परिप्रेक्ष्य में मूल 'लौह पुरुष' सरदार पटेल की भूमिका भी पुनर्परिभाषित की जा रही है। इस अभूतपूर्व वैचारिक दृष्टिकोण के प्रस्तुतीकरण के लिए देश इन महानात्माओं का सदा ऋणी रहेगा।
मगर इसी क्रम में कुछ सवाल भी इस नादान, अल्पज्ञानी दिल में उभरते हैं। वर्तमान युग में सामान्य से प्रश्न भी कुछ अतिसंवेदनशील आत्माओं की 'आस्था को आघात' पहुंचा देते है। ऐसे में मैं अपनी कुछ शंकाएं अपने आस - पास से लगने वाले बापू- गांधीजी से ही पूछने का साहस कर सकता हूँ
- बापू, क्या कारण है कि राष्ट्रवादी मुस्लिमों में इन राष्ट्रवादियों को जिन्ना जी ही याद आते हैं। मैं जिन्ना जी के बारे कुछ नहीं कहना चाहता, उन्हें जो लेना था उसे ले वो खशी ख़ुशी इस दुनिया से ही चले गए, मगर ऐसे राष्ट्रवादियों में कभी अमर शहीद ' अशफाकउल्ला खान ' का नाम नहीं सुनाई देता. 'मौलाना अबुल कलम आजाद' और 'जाकिर हुसैन साहब' के बारे कोई बात नहीं करता!
- काजी नजरुल इस्लाम और इकबाल साहब जैसे कवि और शायरों की किसी को याद नहीं आती !
- कहीं ऐसा तो नही कि कट्टर हिन्दू और कट्टर मुस्लिम विचारधारा में एक आनुवंशिक, अल्पज्ञात संबध हो और यही आनुवंशिक जीन का कभी-कभार उभर आना ही इस जिन्ना प्रेम का मूल कारण हो !
- क्या ऐसा नहीं था कि इसी अति हिन्दू और मुस्लिम राष्ट्रवादिता ने अंग्रेजों को हिंदुस्तान को दो भागों में बांटने का ठोस वैचारिक आधार दिया।
क्षमा चाहता हूँ बापू मगर बहुत ही बुझे दिल से यह शब्द इस्तेमाल करने पड़ रहे हैं कि अंग्रेजों की कूटनीति की नाजायज औलादें दोनों ही देशों में क्षद्म राष्ट्रवाद की आड़ में जनता को बरगला रही हैं। जनता को आज फिर तुम्हारी जरुरत है, मगर मुझमे तुम्हे फिर सूली पर चढ़ता देखने या किसी हत्यारी विचारधारा का शिकार होते देखने की हिम्मत नहीं है बापू.
अब तो बस इतना ही कहूँगा कि 'ईश्वर - अल्लाह' दोनों ही मुल्कों की जनता को अपने-अपने क्षद्म राष्ट्रवादियों को पहचानने और उनसे निपटने की शक्ति दें। आमीन.

तस्वीर : साभार गूगल

Sunday, August 9, 2009

भारत छोडो आन्दोलन : और वो 7 अमर शहीद


8 अगस्त 1942 ही वह ऐतिहासिक दिन था, जब धीमे पड़ते स्वतंत्रता संग्राम में नई जान फूंकते हुए गांधीजी ने 'करो-या-मरो' का मंत्र देते हुए अंग्रेजों से भारत छोड़ने का आह्वान किया था। अगले ही दिन यानि 9 अगस्त, 1942 से संपूर्ण भारत में 'भारत छोडो आन्दोलन' का श्रीगणेश हो गया। पहले ही दिन इसके तमाम बड़े नेता नजरबन्द कर लिए गए, मगर सही अर्थों में यह एक व्यापक जनांदोलन के रूप में उभरा। सारे देश में आम जनता ने स्वयं ही इस आन्दोलन की कमान संभाल ली।

ऐसे ही क्रांतिकारी प्रदेशों में से बिहार भी एक था. विधान सभा पर राष्ट्रीयध्वज लहराने की तमन्ना के साथ उमड़ी भीड़ को अंग्रेजों की गोलियों का सामना करना पड़ा। किन्तु न तो भीड़ का उत्साह डिगा न ही उनके हाथ का ध्वज. इस घटना में शहीद हुए 7 नौजवानों जो मात्र 9 - 12 वीं कक्षा के ही छात्र थे के नाम- 'उमाकांत प्रसाद सिन्हा, रामानंद सिंह, सतीश प्रसाद झा, जल्पति कुमार, देवीपद चौधरी, राजेंद्र सिंह तथा रामगोविंद सिंह थे '

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पटना सचिवालय के समक्ष इनकी स्मृति में कांस्य प्रतिमा स्थापित की गई, जो आज भी इन अमर बलिदानियों की पवन स्मृति कराती है।

भारत छोडो आन्दोलन के इस स्मरण दिवस पर इन अमर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजली।

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