गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर शिक्षा और शिक्षक पर गांधीजी के विचारों और एक शिक्षक के रूप में उनके अनुभवों का स्मरण करने की इच्छा आपके साथ भी बाँट रहा हूँ.
द. अफ्रीका प्रवास के दौरान 'टॉलसटॉय आश्रम' में निवास करने वाले बच्चों के शिक्षण के लिए उन्हें शिक्षक की भूमिका भी निभानी पड़ी थी. इस अनुभव ने शिक्षा के क्षेत्र में उन्हें कुछ और प्रयोग तथा मौलिक चिंतन विकसित करने में भी सहयोग दिया. धन, शिक्षकों की कमी तो उनके सामने थी ही, जो शिक्षा के प्रचलित स्वरुप को व्यवहार में लाने में बाधा बन रही थी. जैसाकि गांधीजी स्वयं भी किताबी शिक्षा से चारित्रिक शिक्षा को ज्यादा महत्व देते थे, उन्होंने यही प्रयास यहाँ भी आरम्भ किया.
अक्षर ज्ञान, चारित्रिक शिक्षा के साथ शारीरिक शिक्षा भी उनके लिए समान महत्व रखते थे. इसके अलावे बच्चों को स्वरोजगार के लिए प्रशिक्षित करना भी उन्होंने जरुरी समझा.
गांधीजी के ही शब्दों में- "टॉल्सटॉय आश्रम मे शुरू से ही रिवाज डाला गया था कि जिस काम को हम शिक्षक न करें, वह बालको से न कराया जाय, और बालक जिस काम मे लगे हो, उसमे उनके साथ उसी काम को करनेवाला एक शिक्षक हमेशा रहे. इसलिए बालको ने कुछ सीखा, उमंग के साथ सीखा."
विद्यार्थियों के चारित्रिक और आत्मिक विकास के लिए उन्होंने बुनियादी धार्मिक शिक्षा देना जरुरी समझा. (क्या धर्मनिरपेक्ष देश में छात्रों को हर धर्म की बुनियादी शिक्षा उपलब्ध कराना समरसता का आधार नहीं बनता !)
किन्तु उन्होंने स्पष्ट किया कि इसे वो बुद्धि की शिक्षा का अंग मानते हैं और आत्मा की शिक्षा एक बिल्कुल भिन्न विभाग है. इस आत्मिक शिक्षा के लिए उनका मानना था कि "...आत्मा की कसरत शिक्षक के आचरण द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है...मैं स्वयं झूठ बोलूँ और अपने शिष्यो को सच्चा बनने का प्रयत्न करूँ, तो वह व्यर्थ ही होगा. डरपोक शिक्षक शिष्यो को वीरता नही सिखा सकता. व्यभिचारी शिक्षक शिष्यो को संयम किस प्रकार सिखायेगा ? मैने देखा कि मुझे अपने पास रहने वाले युवको और युवतियो के सम्मुख पदार्थपाठ-सा बन कर रहना चाहिये. इस कारण मेरे शिष्य मेरे शिक्षक बने. मै यह समझा कि मुझे अपने लिए नही , बल्कि उनके लिए अच्छा बनना और रहना चाहिये. अतएव कहा जा सकता है कि टॉल्सटॉय आश्रम का मेरा अधिकतर संयम इन युवको और युवतियों की बदौलत था."
(नैतिक और चारित्रिक शिक्षा के लिए पाठ्यपुस्तकों का बोझ बढ़ाने के समर्थक गांधीजी के इन विचारों पर गौर क्यों नहीं करते !)
शिक्षा के संबंध में गांधीजी के विचारों को अंशतः भी अपनाया जाता तो देश को आज कई सामाजिक और नैतिक समस्याओं से न जूझना पड़ता.
द. अफ्रीका प्रवास के दौरान 'टॉलसटॉय आश्रम' में निवास करने वाले बच्चों के शिक्षण के लिए उन्हें शिक्षक की भूमिका भी निभानी पड़ी थी. इस अनुभव ने शिक्षा के क्षेत्र में उन्हें कुछ और प्रयोग तथा मौलिक चिंतन विकसित करने में भी सहयोग दिया. धन, शिक्षकों की कमी तो उनके सामने थी ही, जो शिक्षा के प्रचलित स्वरुप को व्यवहार में लाने में बाधा बन रही थी. जैसाकि गांधीजी स्वयं भी किताबी शिक्षा से चारित्रिक शिक्षा को ज्यादा महत्व देते थे, उन्होंने यही प्रयास यहाँ भी आरम्भ किया.
अक्षर ज्ञान, चारित्रिक शिक्षा के साथ शारीरिक शिक्षा भी उनके लिए समान महत्व रखते थे. इसके अलावे बच्चों को स्वरोजगार के लिए प्रशिक्षित करना भी उन्होंने जरुरी समझा.
गांधीजी के ही शब्दों में- "टॉल्सटॉय आश्रम मे शुरू से ही रिवाज डाला गया था कि जिस काम को हम शिक्षक न करें, वह बालको से न कराया जाय, और बालक जिस काम मे लगे हो, उसमे उनके साथ उसी काम को करनेवाला एक शिक्षक हमेशा रहे. इसलिए बालको ने कुछ सीखा, उमंग के साथ सीखा."
विद्यार्थियों के चारित्रिक और आत्मिक विकास के लिए उन्होंने बुनियादी धार्मिक शिक्षा देना जरुरी समझा. (क्या धर्मनिरपेक्ष देश में छात्रों को हर धर्म की बुनियादी शिक्षा उपलब्ध कराना समरसता का आधार नहीं बनता !)
किन्तु उन्होंने स्पष्ट किया कि इसे वो बुद्धि की शिक्षा का अंग मानते हैं और आत्मा की शिक्षा एक बिल्कुल भिन्न विभाग है. इस आत्मिक शिक्षा के लिए उनका मानना था कि "...आत्मा की कसरत शिक्षक के आचरण द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है...मैं स्वयं झूठ बोलूँ और अपने शिष्यो को सच्चा बनने का प्रयत्न करूँ, तो वह व्यर्थ ही होगा. डरपोक शिक्षक शिष्यो को वीरता नही सिखा सकता. व्यभिचारी शिक्षक शिष्यो को संयम किस प्रकार सिखायेगा ? मैने देखा कि मुझे अपने पास रहने वाले युवको और युवतियो के सम्मुख पदार्थपाठ-सा बन कर रहना चाहिये. इस कारण मेरे शिष्य मेरे शिक्षक बने. मै यह समझा कि मुझे अपने लिए नही , बल्कि उनके लिए अच्छा बनना और रहना चाहिये. अतएव कहा जा सकता है कि टॉल्सटॉय आश्रम का मेरा अधिकतर संयम इन युवको और युवतियों की बदौलत था."
(नैतिक और चारित्रिक शिक्षा के लिए पाठ्यपुस्तकों का बोझ बढ़ाने के समर्थक गांधीजी के इन विचारों पर गौर क्यों नहीं करते !)
शिक्षा के संबंध में गांधीजी के विचारों को अंशतः भी अपनाया जाता तो देश को आज कई सामाजिक और नैतिक समस्याओं से न जूझना पड़ता.
तस्वीर- 'टॉलसटॉय आश्रम' में गांधीजी (साभार गूगल)
बहुत सामयिक आलेख .. आज न तो शिक्षा प्रणाली और न ही शिक्षक बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए प्रयत्नशील हैं .. इसके कारण ही आज बच्चों के सामने दवाबपूर्ण माहौल बना हुआ है।
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट है,बिल्कुल ठीक बात है,इसी तरह धन के संबंध में गांधी जी कहते थे कि
ReplyDeleteधनवान को समझना चाहिये कि वह धन का ट्रस्टी है न कि मालिक और चाहे शिक्षा क्षेत्र हो या समाज का कोई अन्य हिस्सा,भारतीय जीवन शैली सामाजिक मूल्यों ही नहीं वैज्ञानिक मूल्यों पर खरी उतरती है-मैं एक चिकित्सक हूं लगभग ४० साल पूव मेडिकल कालेज में लाइब्रेरी में किताब पढी मेड हिस्त्री-लिखा था asian more so indians are so ignorent that they give rice water to a person efflicted by chlera,why because stools passed in cholera resembles rice water .now WHO is recommendig rice based ORS .similarly there are many other examples. on which i have been delivering my lecture INDIAN WAY OF LIVING [ancient]is a way based on socio-scientific facats
shyam
मैं स्वयं झूठ बोलूँ और अपने शिष्यो को सच्चा बनने का प्रयत्न करूँ, तो वह व्यर्थ ही होगा. डरपोक शिक्षक शिष्यो को वीरता नही सिखा सकता. व्यभिचारी शिक्षक शिष्यो को संयम किस प्रकार सिखायेगा ?
ReplyDeleteबिक्लकुल सही कहते थे गांधी जी, आप का धन्यवाद इन सुंदर विचारो को हम मै बांटने के लिये
"...आत्मा की कसरत शिक्षक के आचरण द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है...मैं स्वयं झूठ बोलूँ और अपने शिष्यो को सच्चा बनने का प्रयत्न करूँ, तो वह व्यर्थ ही होगा. डरपोक शिक्षक शिष्यो को वीरता नही सिखा सकता. व्यभिचारी शिक्षक शिष्यो को संयम किस प्रकार सिखायेगा ? मैने देखा कि मुझे अपने पास रहने वाले युवको और युवतियो के सम्मुख पदार्थपाठ-सा बन कर रहना चाहिये. इस कारण मेरे शिष्य मेरे शिक्षक बने. मै यह समझा कि मुझे अपने लिए नही , बल्कि उनके लिए अच्छा बनना और रहना चाहिये. अतएव कहा जा सकता है कि टॉल्सटॉय आश्रम का मेरा अधिकतर संयम इन युवको और युवतियों की बदौलत था."
ReplyDelete(नैतिक और चारित्रिक शिक्षा के लिए पाठ्यपुस्तकों का बोझ बढ़ाने के समर्थक गांधीजी के इन विचारों पर गौर क्यों नहीं करते !)
लेख प्रासंगिक है।
शब्दों का भोजन परोसने के धन्यवाद।
गुरु पूर्णिमा की शुभकामनाऐं.
ReplyDeleteगांधी जी बहुआयामी सोच और व्यक्तित्व के धनी थे ! आज भी उनके रूप अनावृत हो रहे हैं -उन्हें शिक्षक के रूप में प्रस्तुत करती है यह पोस्ट -बहुत आभार !
ReplyDeleteGandhi ji ke mookh se nikla, ya unka likha harek shabd, ek 'maulik shiksha'hai...ek suvichar..ek "quotable quote"...mai jitna unhen padhtee hun, utnee hee dang reh jaatee hun..!
ReplyDeleteQudart ne ham sabhee ko din ke 24 ghante bhent kiye hain..utnehee samay me Gandhi ji kya kuchh nahee kar gaye..!
गुरू पूर्णिमा के पावन अवसर पर आचरण के द्वारा शिक्षा देने की जो बात आपने बतायी है, वह बहुत उत्तम है.
ReplyDeleteमै आपसे सहमत हूँ कि अगर यह व्यवहार में आ जाय तो बहुत सारी समस्याएँ सुलझने की उम्मीद है .
गुरु पूर्णिमा को इस आलेख का प्रकाशन आप का राष्ट्रपिता को गुरु के रूप प्रस्तुत कर आप ने , अपने गुरु की इस गुरु पूर्णिमा की दक्षिणा सटीक दी है चिरंजीव भावः |
ReplyDeleteअब मैं आज के गुरुओं की शिक्षा बताता हूँ , मैं एक प्राथमिक पाठशाला में छात्र वृति बाँट रहा था बिजली नहीं है बाद में
कल बिजली चली जाने से बात अधूरी रह गयी थी |
ReplyDeleteमैं किसी प्राथमिक शाला पर छात्र वृति बाँट रहा था , कक्षा 3 की बारी चल रही थी ,बच्चे आते दोनों रजिस्टरों पर, प्राप्ति पत्रक [वितरण सूचि ]के प्राप्ति कालम में हस्ताक्षर करता 300 रुपये लेता और चला जत , एक लड़की की बारी आयी अपना नाम न लिख सकी तो न लिख सकी यहाँ तक की बगल कागज पर नाम लिख कर रख दिया इ नक़ल कर दे ,लड़की वो भी न कर सकी | वहां बैठी सभी शिक्षिकाएं जो लगभग 3-3 सालों से अधिक से वहां नियुक्त थीं निर्लज्ज बैठी हंसती रही उनमें से किसी को भी ग्लानि न हुई कि वे अपने कर्तव्य पालन में विफल रही थीं | फिर बिजली गयी
आपने गांधीजी के जीवन के एक अल्पज्ञात (या मेरे लिए अज्ञात) पहलू से अवगत कराया.धन्यवाद.
ReplyDeleteअत्यन्त प्रेरणास्पद!
ReplyDelete"टॉल्सटॉय आश्रम मे शुरू से ही रिवाज डाला गया था कि जिस काम को हम शिक्षक न करें, वह बालको से न कराया जाय, और बालक जिस काम मे लगे हो, उसमे उनके साथ उसी काम को करनेवाला एक शिक्षक हमेशा रहे. इसलिए बालको ने कुछ सीखा, उमंग के साथ सीखा."
ReplyDeleteisse achhi seekh aur kya ho sakti hai samaj ko achha banane ki liye...
प्रेरणादायी आलेख. आभार. हम चूक गए थे.
ReplyDeleteछोटी छोटी कक्षाओं के कोर्स में इस प्रकार के विचारों से बच्चों को अवगत कराया जाना चाहिए
ReplyDeletePrerak Post. Main to ise padhne se rah hi gaya tha.
ReplyDeleteगुरु द्रोणा ने पांडवो और कौरवो को एक दिन सत्य का पाठ पढाया और कहा ये पाठ में अगले दिन सुनूगा. अगले दिन सभी ने वही पाठ दोहरा दिया मगर युधिष्ठर ने वो पाठ नहीं सुनाया. गुरु जी ने उन्हें दोबारा याद करने का समय दिया. दो सप्ताह बाद जब गुरूजी ने सत्य के पाठ बारे पूछा तो युधिष्ठर ने फिर एक दिन का समय माँगा. अगले दिन युधिष्ठर ने वो पाठ सभी के सामने सुनाया. गुरु जी ने पूछा, आखिर इतने होशियार शिष्य को छोटा सा पाठ याद करने में इतना समय क्यों लगा. युधिष्ठर ने जवाब दिया, गुरु जी ये सबसे कठिन पाठ था. जब तक में सत्य को खुद में धारण नहीं कर लेता, तब तक कैसे सुना सकता था. गुरु ने कहा, सही मायने में युधिष्ठर ने ही ये पाठ याद किया है....गाँधी जी ने भी यही कहा, जो आप खुद आचरण नहीं करते, उसके लिए दुसरो को सीख कैसे दे सकते है...आपका ब्लॉग सच में बेहद प्रेनादायक है..
ReplyDeleteAapki post padh kar atayant anand hua. Yeh ek aisa vishay hai, jiske baare mein maine bhi bahut vichar kiya hai. Kitna zaroori hai acche sikshakon ka hona,yeh to zahir hai !! Aajakl aise shikshak shayad hi dekhne ko milte hain. Mera saamna aise shikshkon se bhi hua hain jinhone bachhon se sharirik aur mansik pratarna ka bhi koi avsar nahi choda.Aise shikshak jinhe "Counseling" ki bahut jaroorat hoti hai.
ReplyDeleteEk bacche ke sabse pehle shikshak to uske Mata-pita hote hain. Agar har mata-pita is baat ko samajh jaayen to bacchon ko hamesha acche sanskar hi milenge. Parantu ... !!