आज प्रसिद्ध क्रांतिकारी अरुणा आसफ़ अली जी की पुण्यतिथि है। स्वभाव से विद्रोहिणी अरुणा जी के व्यक्तित्व की झलक उनकी राजनीतिक यात्रा से भी मिलती है। 1948 में अरुणा जी कांग्रेस छोड़कर सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गईं। दो साल बाद 1950 में वो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य बनीं। कम्युनिस्ट पार्टी से मोह भंग होने के बाद 1958 में उन्होंने पार्टी छोड़ दी। 1958 में वो दिल्ली की पहली महिला मेयर बनीं। सन् 1964 ई. में पं. जवाहरलाल नेहरू जी के निधन के पश्चात वे पुनः कांग्रेस से जुड़ीं, किंतु अधिक सक्रिय नहीं रहीं।
उनके लिए गांधी जी ने कहा था- "अरुणा मेरी पुत्री है; भले ही यह विद्रोहिणी हो, या मेरे घर में पैदा न हुई हो, पर मेरे लिए तो वह हर हालत में पुत्री ही रहेगी।"
एक भाषण में उन्होंने कहा था-
"मुझसे कई बार पूछा जाता है कि तुम 1942 के पहले तो समाजवादी न थीं, अब कैसे बन गई? तुम पूंजीपतियों की निंदा क्यों करती हो?... इन सब बातों के कारण भी उपर्युक्त हैं। बापू जी के उपवास के वक्त मैंने कई धनवानों को अपने हाथों से पत्र लिखे थे कि 'कृपया लिनलिथगो से मिलिए', 'बापू जी की जिंदगी बचाईये'। उन लोगों का जवाब मिला 'हमारे हाथ बंधे हैं', 'हम लाचार हैं', 'आपकी मदद नहीं कर सकते'- आज वे ही पूंजीपति ब्रिटेन के उद्योगपतियों के साथ मिलकर और करारनामा करके भारत में ब्रिटिश माल मंगाने की व्यवस्था कर रहे हैं, ब्रिटिश माल पर भारत की छाप लगा कर बेच रहे हैं। उनके प्रति मेरी घृणा का यही कारण है।
आज हमें सिर्फ संघर्ष के बाद करना है, हम समझौतों को नहीं मानते न एटली या उनकी मजदूर सरकार को पहचानते हैं। हमारी सबसे ज्यादा पहचान तो बंबई की पुलिस है। आज भाषण या ठहराव करने का जमाना नहीं, जरूरत है काम करने की, लड़ाई के लिए तैयारी करने की।... आज मैं आपके सामने भाषण कर रही हूँ, कौन जानता है कल या उसके बाद वर्षों तक मैं आपके सामने आ भी न सकूं। गांधी जी ने ही हम लोगों को असहयोग का मंत्र दिया है, और आजादी का मार्ग भी यही है, हिंसा या अहिंसा उसके के साधन मात्र हैं। असहयोग स्वतंत्रता का एक महत्वपूर्ण उपाय है। गांधीजी के असहयोग मंत्र देने के बाद आज 40 करोड़ की आंखों में एक नई ज्योति दिखाई देती है। आज हमारे सम्मुख गांधीजी के उस असहयोग को अपने-आप में समा लेने का प्रश्न है।"
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