श्री असगर वजाहत जी हिंदी के एक प्रसिद्ध
रचनाकार हैं. उनके द्वारा लिखित एक बहुचर्चित नाटक ‘जित लाहौर नइं वेख्या...’
देखने का सुअवसर मुझे दिल्ली में रहते मिला था. उन्ही दिनों उनका एक और नाटक ‘गोडसे@गाँधी.कॉम’
भी एक पत्रिका में पढा. वर्तमान परिदृश्य में इस नाटक की चर्चा आवश्यक समझते हुए
एक लंबे समय के बाद इस ब्लॉग पर नई शुरुआत कर रहा हूँ.
नाटक में गाँधी और गोडसे के विषय को ही
नहीं, बल्कि गाँधी विचार व उनके व्यक्तित्व के विविध पहलुओं को भी स्पर्श करने का
प्रयास किया गया है. नाटक की पृष्ठभूमि में गोडसे द्वारा गांधीजी पर गोली चलाये
जाने की घटना ही है. नाटक के अनुसार गांधीजी इस हमले में जीवित बच जाते हैं और
अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद गोडसे से मिल उसे क्षमा कर देते हैं. वो विस्मित
है और इसे उनका कोई नया नाटक समझ रहा है, मगर उसकी अपेक्षाओं के विपरीत उसे 5 साल की
ही सजा मिलती है.
दूसरी ओर गांधीजी नेहरु आदि नेताओं को
समझते हैं कि कांग्रेस जो एक खुला मंच थी जिसमें हर विचार के लोग शामिल हुए को एक
पार्टी का रूप देना उचित नहीं, अतः अब इसे भंग कर गाँवों में जा देशसेवा करनी
चाहिए. मगर उनका यह प्रस्ताव अस्वीकृत हो जाता है. कांग्रेस से नाता तोड़ गाँधीजी ‘बिहार’ के एक सुदूरवर्ती आदिवासी गाँव में अपना
‘प्रयोग आश्रम’ स्थापित कर लेते हैं. उनका यह गाँव ‘ग्राम-स्वराज’ की एक जिवंत
मिसाल बन जाता है जिसकी अपनी सरकार और शासन है और जो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के
लिए देश की संसद के निर्णयों पर आश्रित नहीं. देश के अंदर ऐसे शासन की अवधारणा
दिल्ली में खतरनाक मानी गई और गांधीजी स्वतन्त्र भारत की निर्वाचित सरकार द्वारा
पुनः गिरफ्तार कर लिए जाते हैं.
यहाँ गांधीजी ने स्वयं को गोडसे के साथ
रखे जाने के लिए आमरण अनशन शुरू कर दिया. उनकी मांग मानी गई और गांधीजी और गोडसे
के मध्य विचारों के आदान-प्रदान की एक लंबी श्रंखला आरंभ हुई. दोनों के बीच ‘हिंदुत्व’
जैसे कई विषयों को लेकर अपनी चर्चा चलती रहती है और वह दिन भी आता है जब दोनों एक
ही साथ रिहा होते हैं. चलते वक्त गांधीजी गोडसे से बस इतना ही कहते हैं कि – “
नाथूराम... मैं जा रहा हूँ. वही करता रहूँगा जो कर रहा था. तुम भी शायद वही करते
रहोगे जो कर रहे थे.” नाटक के अंत में तो दोनों पात्र एक साथ एक ही राह की ओर चल
देते हैं, मगर शायद दोनों की विचारधाराएं आज भी अपना-अपना काम ही कर रही हैं या
शायद यह एक राजनीतिक प्रहसन ही है देश सेवा के बदले देश सेवा के लिए शासन का अवसर
पाने की कवायद का...
(संभव हुआ तो गांधीजी के शहीद दिवस पर
गाँधी-गोडसे संवाद पर चर्चा का प्रयास करूँगा. )
अभी तक देखा नहीं असगर वजाहत का यह नाटक। रोचक लगता है।
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