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Sunday, November 22, 2020

गांधी मार्ग की साधिका मीरा बेन

 


आज 'मीरा बेन' के नाम से प्रसिद्ध मेडेलीन स्लेड का जन्मदिन है। उन्हें यह नाम महात्मा गांधी ने ही दिया था। 

इंग्लैंड के अति संभ्रांत व संपन्न परिवार में 22 नवंबर 1892 को जिस मेडेलीन स्लेड का जन्म हुआ, उन्हें बापू ने 1925 में मीरा बहन बना दिया । पिता सर एडमंड स्लेड नौसेना के उच्चाधिकारी थे । बाद में वे कमांडर-इन-चीफ भी बनाए गए । जब बच्चे खिलौनों से खेलते हैं, मेडेलीन उनसे विरक्त रहती थी। आडंबर उन्हें नहीं भाता था।



अपनी आत्मकथा The Spiritual Pilgrimage  में वे लिखती हैं: “पांच साल की उम्र से ही कभी किसी पंछी की आवाज या पेड़ों की सरसराहट मुझे कहीं दूर ले जाती थी । मैं किसी ‘अज्ञात प्रेरणा’ के वशीभूत उस छुपे सत्य को खोजने घोड़े की पीठ पर बैठ, अपने नाना के गांव वाले विशाल घर से खेतों, जंगलों, नदियों और सागर के आसपास जाकर प्रकृति से अपना नाता जोड़ा करती थी । मुझे उस ‘अज्ञात’ में भय के बजाय अपार आनंद का अनुभव होता !”

यही अज्ञात की तलाश उन्हें कई मोड़ों से होते भारत ले आई और महात्मा गांधी से जोड़ी; जो जुड़ाव जीवनपर्यंत बना रहा। 

मीरा का सारा जीवन बापूमय था और बापू के लोग ही उनके अपने संगी-साथी थे । डॉ. सुशीला नैयर उनके सबसे निकट थीं, जिनके साथ वे जेल में भी रही थीं । महादेव देसाई ने लिखा है : लंदन में राजसी ठाट में पली यह युवती गांधीजी के प्रति जिस निष्ठा और समर्पण से अपना जीवन बदलने में सफल रही, वैसा दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है। उन्होंने भारतीय गांवों में लंबे समय तक मानव मल की प्रत्यक्ष सफाई ही नहीं की बल्कि नया आदमी बनाने के काम मैं भी जुटी रहीं। वे बहुत ही सौम्य और शालीन थीं और बेहद निडर थीं। शराबबंदी के अभियान में शराबी जब उनके साथ बुरा बरताव करते थे तब उनकी शालीनता और दृढ़ता देखते बनती थीं। बारिश के दिनों में भी वे टूटी-फूटी झोंपड़ी में शांति से रहती थीं। वे अपना डेरा-डंडा संभाल कर सतत चलती रहने वाली किसी ध्यानमग्न साधिका-सी लगती थीं।”



1925 से 1944 तक, लगातार 20 साल वे बापू के साथ साबरमती और सेवाग्राम आश्रमों में रहीं । 1945 से 1958 तक 14 साल वे उत्तर भारत के हिमालय के इलाकों में रहीं। 1956 में कश्मीर से लौटकर वे फिर से टिहरी गढ़वाल आ गई। बदलती परिस्थितियों ने उनके कार्यों को प्रभावित किया और उन्होंने हमेशा-हमेशा के लिए भारत छोड़ने का मन बना लिया था। 1958 के अप्रैल में कृष्णमूर्ति गुप्ता को उन्होंने लिखा कि “मुझे एक ‘अनजानी ताकत’ फिर से बुला रही है । मैं इसकी अनसुनी नहीं कर सकती... शायद आज के भारत से ज्यादा बापू के विचारों की जरूरत पश्चिम में है।” 28 जनवरी 1959 को भारत छोड़ने से पहले वे कुछ दिन राष्ट्रपति भवन में डॉ. राजेंद्र प्रसाद के साथ रहीं और फिर इंग्लैंड होती हुई वियना चली गईं। जंगलों के निकट, बिलकुल शांत-एकांत, प्राकृतिक सौंदर्य से भरी वह सुंदर सी जगह आखिरी दिनों तक उनका ठिकाना बनी रही।

गांधी जी ने उनसे जो कहा था, उनके बाद वही शब्द उनके साथ रहे- “मेरी चिंता न करना। ईश्वर पर भरोसा रखना। वही मुझे बनाएगा या बिगाड़ेगा। वही तो सब कुछ बनाता है!”

स्रोत: Gandhian Institutions - Bombay Sarvodaya Mandal & Gandhi Research Foundation


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