
भारत के स्वतंत्रता संघर्ष से आम आदमी की रही दुरी इसे अब तक तार्किक परिणति तक पहुँचने से रोकती आ रही थी. गांधीजी के 'नमक आन्दोलन' ने इस संग्राम को बड़े नेताओं के दायरे से मुक्त कर जन-जन तक पहुंचा दिया.
'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' के एक अंग के रूप में गांधीजी ने 12 मार्च, 1930 को मात्र 78 स्वयंसेवकों के साथ साबरमती आश्रम से 'दांडी यात्रा' आरम्भ की. ब्रिटिश हुकूमत के लिए यह एक पहेली ही थी कि यह यात्रा जिसका अंत नमक बनाने से होना था, भला ब्रिटिश साम्राज्य को कैसे प्रभावित कर सकती है!
मगर 6 अप्रैल, 1930 को गांधीजी द्वारा एक मुट्ठी नमक अपने हाथों में उठाने के साथ ही करोडों हाथों में यह विश्वास भी आ गया कि अपने हक के लिए हम ब्रिटिश कानून से अहिंसक ढंग से भी टक्कर ले सकते हैं.
इस आन्दोलन को अबतक एक मजाक के रूप में ले रही सरकार ने इससे जुड़े सभी बड़े नेताओं को हिरासत में ले लिया, किन्तु यह आन्दोलन अब नेताओं के हाथों में रह ही कहाँ गया था! यह तो एक जनांदोलन बन चूका था.
नमक कानून के भंग होने के साथ ही सारे देश में 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' प्रारंभ हो गया.
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने गांधीजी के 'दांडी मार्च' की तुलना नेपोलियन के 'पेरिस मार्च' से की.
इस आन्दोलन की सबसे बड़ी सफलता थी- महिलाओं की सक्रिय भागीदारी.
सफलता-असफलता के दावों-प्रतिदावों तथा विवादों के बावजूद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से आम आदमी को जोड़ने के लिए याद रखा जायेगा- 6 अप्रैल, 1930 का दांडी मार्च' और 'नमक सत्याग्रह'.
तस्वीर- साभार गूगल