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Saturday, August 21, 2021

गांधी जी के हाथों में लाठी थमाने वाले काका कालेलकर

 


गाँधीवादी विचारधारा को अपनाने वाले भारत के महान साहित्यकार एवं लेखक काका कालेलकर जी की आज पुण्यतिथि है। इनका पूरा नाम दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर था। इनका जन्म 1 दिसंबर, 1885 को सतारा, महाराष्ट्र में हुआ।

काका कालेलकर जी महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव कलेली के मूल निवासी थे, जहाँ से इन्हें इनका उपनाम कालेलकर मिला। कालेलकर जी ने अपनी प्राथमिक शिक्षा वहां के स्थानीय स्कूल से ही प्राप्त की। इसके बाद सन 1903 में इन्होने अपनी मेट्रिक की परीक्षा पास की, और सन 1907 में पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज से इन्होने दर्शनशास्त्र स्नातक पूरा किया।

काका कालेलकर जी ने ‘राष्ट्रमत’ नाम के एक राष्ट्रवादी मराठी दैनिक के एडिटोरियल स्टाफ के रूप में कुछ समय के लिए कार्य किया था और फिर सन 1910 में बड़ौदा में गंगानाथ विद्यालय नाम के एक स्कूल में शिक्षक के रूप में कार्य किया।

कुछ सालों बाद, ब्रिटिश सरकार ने सन 1912 में अपनी राष्ट्रवादी भावना के कारण स्कूल को बंद करवा दिया, तब कालेलकर जी ने पैदल ही हिमालय की यात्रा करने का फैसला किया, और वे चल दिए। इसके बाद उन्होंने सन 1913 में बर्मा यानि म्यांमार की यात्रा की, जहाँ वे आचार्य कृपालनी के साथ शामिल हुए।

बर्मा की यात्रा के बाद इनकी मुलाकात सन 1915 में महात्मा गाँधी जी से हुई। गाँधी जी से मिलने के बाद वे उनसे बहुत प्रभावित हुए, और उनसे प्रभावित होकर वे साबरमती आश्रम के सदस्य बने। इसके बाद कालेलकर जी ने साबरमती आश्रम की राष्ट्रीय शाला में भी पढ़ाया। कुछ समय के लिए उन्होंने सर्वोदय के सम्पादक के रूप में सेवा की, जिसे आश्रम के परिसर द्वारा चलाया जाता था। गाँधी जी ने कालेलकर जी को प्रोत्साहित किया, जिसके बाद उन्होंने अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना में सक्रिय भूमिका निभाई और सन 1928 में वे इसके वाइस – चांसलर बने। गाँधी जी के साथ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलनों में कालेलकर जी पूरी निष्ठा से शामिल होते थे। इस कारण से उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा।  1930 में पूना के यरवदा जेल में गांधी जी के साथ उन्होंने महत्वपूर्ण समय बिताया। सन 1939 में काका कालेलकर जी ने गुजरात विद्यापीठ से सेवानिवृत्ति ले ली।

सन 1935 में कालेलकर जी राष्ट्रभाषा समिति के सदस्य बने, इस समिति का मुख्य उद्देश्य हिंदी जो कि हिन्दुस्तानी भाषा है, को भारत की राष्ट्रीय भाषा के रूप में लोकप्रिय बनाना था।

वे सन 1948 में गाँधी जी की मृत्यु के बाद से गाँधी स्मारक निधि से अपनी मृत्यु तक जुड़े हुए थे।

सन 1952 से सन 1964 तक काका कालेलकर जी को राज्य सभा के सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया था

सन 1959 में कालेलकर जी ने गुजराती साहित्य परिषद की अध्यक्षता की थी। इसके बाद सन 1967 में इन्होंने एक वेदशाला ‘गाँधी विद्यापीठ’ की स्थापना की, और इसके उपाध्यक्ष के रूप में कार्य किया।

महात्मा गाँधी जी ने कालेलकर जी को ‘सवई गुजराती’ नाम दिया था। दरअसल उनकी मातृभाषा मराठी होने के बावजूद भी कालेलकर जी को गुजराती भाषा का बहुत अच्छे तरीके से ज्ञान था। इसलिए गाँधी जी ने कालेलकर जी को यह नाम दिया।

29 जनवरी सन 1953 में भारत के संविधान के अनुच्छेद 340 का पालन करते हुए पहले पिछड़े वर्ग आयोग की स्थापना की गई थी। यह उस समय के भारत के राष्ट्रपति के आदेश पर काका कालेलकर जी की अध्यक्षता में की गई थी। इस पहले पिछड़े वर्ग आयोग को काका कालेलकर आयोग के नाम से भी जाना जाता है।

काका कालेलकर जी ने हिंदी, गुजराती, मराठी एवं अंग्रेजी भाषाओँ में उल्लेखनीय एवं शानदार किताबें लिखी, जिनमें प्रमुख हैं-

महात्मा गाँधी का स्वदेशी धर्म एवं राष्ट्रीय शिक्षा का आदर्श, क्विंटेसेंस ऑफ गांधियन थॉट, प्रोफाइल्स इन इंस्पिरेशन, स्ट्रे ग्लिमप्सेस ऑफ बापू, महात्मा गाँधी’स गॉस्पेल ऑफ स्वदेशी, हिमालयातिल प्रवास आदि।

सन 1965 में काका कालेलकर जी को गुजराती भाषा में लिखी गई जीवन – व्यवस्था किताब जो कि गुजराती भाषा में निबंधों का संग्रह है, के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ।

कालेलकर जी की साहित्यिक उपलब्धियों के लिए उन्हें सन 1971 में साहित्य अकादमी फेलोशिप भी दी गई थी।
इसके अलावा भारत सरकार द्वारा कालेलकर जी को सन 1964 में पद्म विभूषण पुरस्कार जोकि भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है से सम्मानित किया गया था।
सन 1985 में कालेलकर जी के सम्मान में एक स्मारकीय डाक टिकट भी जारी किया गया।

गुजरात में हिंदी-प्रचार को जो सफलता मिली, उसका मुख्य श्रेय काका साहब को है।

काका कालेलकर जी का निधन 21 अगस्त 1981 को 96 साल की उम्र में हुआ।


गांधी जी को थमाई लाठी:

स्वास्थ्य के के प्रति सचेत गांधी जी के हाथों में लाठी स्वाभाविक चीज नहीं थी। लेकिन हाथों में इसे थामने के पीछे काका कालेलकर की प्रभावी भूमिका मानी जाती है।
जब अहमदाबाद के साबरमती आश्रम में गांधीजी अपने ऐतिहासिक दांडी मार्च यानी नमक सत्याग्रह की तैयारी कर रहे थे, वहां उनसे मिलने के लिए काका कालेलकर आए। वो उनकी पैदल यात्रा को लेकर थोड़ा चिंतित थे।।इसके लिए उन्होंने गांधीजी को सुझाया कि साथ में एक लाठी लेकर चलना यात्रा को कुछ बेहतर बना सकेगा।

काका कालेलकर ने केवल ये सुझाव ही नहीं दिया, बल्कि वे अपने साथ एक लाठी लेकर भी आए थे। उन्होंने गांधी को लाठी सौंप दी और पूरी यात्रा के दौरान गांधीजी लाठी लेकर चलते रहे। रास्ते में कई नदियां भी पड़ीं, जिनकी धाराओं को उन्होंने लाठी लेकर पार किया। वे अपने साथियों के साथ रोज 12 से 20 किलोमीटर तक चलते थे, बीच-बीच में पड़ने वाले गांवों से भी लोग जुड़ते रहे। इस तरह से 24 दिनों की यात्रा के बाद 6 अप्रैल, 1930 को दांडी गांधीजी ने समुद्रतट पर नमक कानून तोड़ा।

नमक जैसी निहायत जरूरी चीज पर अंग्रेजी-टैक्स के विरोध में तय की गई इस यात्रा की ढेरों तस्वीरें मिलती हैं, जिनमें गांधी लाठी लेकर चलते दिख रहे हैं। तेजी से लाठी टेकते और हजारों की भीड़ संग आगे बढ़ते गांधीजी की तस्वीरें उस दौर में भी सर्वत्र छा गईं, उनकी छवि के साथ एकाकार हो गईं। उनकी लाठी भी आंदोलन का प्रतीक बन गई। इसके बाद से गांधीजी के साथ भी हरदम लाठी दिखने लगी।

दिलचस्प बात ये है कि गांधीजी के हाथ में आने से पहले लाठी कई हाथों से गुजर चुकी थी। लाइव हिस्ट्री इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक ये लाठी कन्नड़ कवि एम गोविंद पई के पास थी। कर्नाटक के ये कवि अपनी कविताओं के अलावा देशप्रेम में भी काफी आगे थे। यही वजह बताई जाती है कि दूसरी कई भाषाएं और खासकर अंग्रेजी में गोल्ड मेडल लेने के बाद भी पई ने कन्नड़ में ही लिखा।

उनके देशप्रेम पर लिखते हुए बारे कन्नड़ लेखन किन्हन्ना पई ने अपनी किताब महाकवि गोविंद पई में लिखा है कि पई गांधीजी के आंदोलन में सहयोग के सिलसिले में काका कालेलकर से मिले और यहीं दोनों दोस्त बन गए जो दोस्ती पूरी उम्र रही। पई ने अपने इस मित्र को यादगार के लिए लाठी भेंट की थी। ये लाठी पई के लिए बेहद खास थी क्योंकि ये उन्हें उनके दादा से मिली थी। यही लाठी गांधीजी की पैदल यात्रा को देखते हुए काका कालेलकर ने उन्हें दे दी।

गांधीजी के साथ ये लाठी पूरी उम्र रही। साल 1948 में गांधीजी की हत्या के बाद उनसे जुड़ी सारे चीजें यादगार के तौर पर अलग-अलग संग्रहालयों में सहेज दी गईं। लेकिन कोई भी शायद उतनी ख्यात न रही हो, जितनी गांधीजी की लाठी और चश्मा रहे। नेशनल गांधी म्यूजियम में आज भी ये लाठी गांधीजी की कई अन्य लाठियों के बीच रखी हुई है।

एक निष्ठावान गांधीवादी कार्यकर्ता के रूप में उनका जीवन एक मिसाल है।

(स्रोत तथा तस्वीरें: इंटरनेट पर उपलब्ध विभिन्न सामग्री)

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