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Thursday, July 29, 2021

गांधी जी की विद्रोहिणी पुत्री: अरुणा आसफ़ अली

 





आज प्रसिद्ध क्रांतिकारी अरुणा आसफ़ अली जी की पुण्यतिथि है। स्वभाव से विद्रोहिणी अरुणा जी के व्यक्तित्व की झलक उनकी राजनीतिक यात्रा से भी मिलती है। 1948 में अरुणा जी कांग्रेस छोड़कर सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गईं। दो साल बाद 1950 में वो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य बनीं। कम्युनिस्ट पार्टी से मोह भंग होने के बाद 1958 में उन्होंने पार्टी छोड़ दी। 1958 में वो दिल्ली की पहली महिला मेयर बनीं। सन् 1964 ई. में पं. जवाहरलाल नेहरू जी के निधन के पश्चात वे पुनः कांग्रेस से जुड़ीं, किंतु अधिक सक्रिय नहीं रहीं।


उनके लिए गांधी जी ने कहा था- "अरुणा मेरी पुत्री है; भले ही यह विद्रोहिणी हो, या मेरे घर में पैदा न हुई हो, पर मेरे लिए तो वह हर हालत में पुत्री ही रहेगी।"


एक भाषण में उन्होंने कहा था- 


"मुझसे कई बार पूछा जाता है कि तुम 1942 के पहले तो समाजवादी न थीं, अब कैसे बन गई? तुम पूंजीपतियों की निंदा क्यों करती हो?... इन सब बातों के कारण भी उपर्युक्त हैं। बापू जी के उपवास के वक्त मैंने कई धनवानों को अपने हाथों से पत्र लिखे थे कि 'कृपया लिनलिथगो से मिलिए', 'बापू जी की जिंदगी बचाईये'। उन लोगों का जवाब मिला 'हमारे हाथ बंधे हैं', 'हम लाचार हैं', 'आपकी मदद नहीं कर सकते'- आज वे ही पूंजीपति ब्रिटेन के उद्योगपतियों के साथ मिलकर और करारनामा करके भारत में ब्रिटिश माल मंगाने की व्यवस्था कर रहे हैं, ब्रिटिश माल पर भारत की छाप लगा कर बेच रहे हैं। उनके प्रति मेरी घृणा का यही कारण है।


आज हमें सिर्फ संघर्ष के बाद करना है, हम समझौतों को नहीं मानते न एटली या उनकी मजदूर सरकार को पहचानते हैं। हमारी सबसे ज्यादा पहचान तो बंबई की पुलिस है। आज भाषण या ठहराव करने का जमाना नहीं, जरूरत है काम करने की, लड़ाई के लिए तैयारी करने की।... आज मैं आपके सामने भाषण कर रही हूँ, कौन जानता है कल या उसके बाद वर्षों तक मैं आपके सामने आ भी न सकूं। गांधी जी ने ही हम लोगों को असहयोग का मंत्र दिया है, और आजादी का मार्ग भी यही है, हिंसा या अहिंसा उसके के साधन मात्र हैं। असहयोग स्वतंत्रता का एक महत्वपूर्ण उपाय है। गांधीजी के असहयोग मंत्र देने के बाद आज 40 करोड़ की आंखों में एक नई ज्योति दिखाई देती है। आज हमारे सम्मुख गांधीजी के उस असहयोग को अपने-आप में समा लेने का प्रश्न है।"

Thursday, July 15, 2021

दुर्गाबाई देशमुख: छोटी सी गुड़िया की लंबी कहानी...



असहयोग आंदोलन पूरे देश में जोर-शोर से चल रहा था। महात्मा गांधी पूरे भारत में घूम-घूमकर लोगों को संबोधित कर रहे थे। 2 अप्रैल, 1921 को महात्मा गांधी आंध्र प्रदेश के काकीनाड़ा में एक सभा करनेवाले थे। मुख्य कार्यक्रम वहां के टाउन हॉल में आयोजित होने वाला था। जब इस बारे में वहां के एक बालिका विद्यालय की 12 साल की छात्रा को पता चला, तो उसने तय किया कि वह वहां की प्रचलित देवदासी प्रथा की शिकार महिलाओं को तथा बुर्का कुप्रथा की शिकार मुस्लिम महिलाओं को भी गांधीजी से मिलवाएंगी। वह चाहती थी गांधीजी इन महिलाओं को कुछ ऐसा संदेश दें जिससे ये इन कुप्रथाओं से उबर सकें।

किन्तु गाँधी जी से मिलना आसान नहीं था। उनके पास बहुत कम समय होता था और स्थानीय आयोजक अपने कार्यक्रम को लेकर बहुत व्यस्त थे, इसलिए आयोजकों ने टालने के लिए उस छोटी सी लड़की से कह दिया कि यदि उसने गांधीजी को देने के लिए पांच हजार रुपये का चंदा इकट्ठा कर लिया तो गांधीजी का दस मिनट का समय उन महिलाओं के लिए मिल जाएगा। आयोजकों ने हंसी-हंसी में सोचा होगा कि यह बच्ची भला पांच हजार रुपये कैसे इकट्ठा कर पाएगी। इसके बाद दुर्गाबाई अपनी देवदासी सहेलियों से जाकर मिली और इस शर्त के बारे में बताया। देवदासियों ने कहा कि रुपयों का इंतजाम तो हो जाएगा लेकिन वह रोज आकर उनसे मिले और उन्हें गांधीजी के देश के प्रति योगदान के बारे में बताए। कहा जाता है कि एक सप्ताह के भीतर ही रुपयों का इंतजाम हो गया।

अब समस्या थी कि गांधीजी से मिलने का यह कार्यक्रम किस जगह पर रखा जाए। देवदासियां और बुर्कानशीं महिलाएं आम सभा में जाने से हिचक रही थीं। स्थानीय आयोजकों ने कोई मदद नहीं की। इसलिए दुर्गाबाई ने उन्हें रुपये देने से इनकार कर दिया और खुद ही कार्यक्रम के लिए उपयुक्त जगह की तलाश में जुट गई। वह अपने स्कूल के हेडमास्टर शिवैया शास्त्री के पास गई और अनुरोध किया कि स्कूल के ही विशाल मैदान में कार्यक्रम आयोजित करने की अनुमति दी जाए। उन्होंने अनुमति दे दी। स्थानीय आयोजकों ने कहा कि गांधीजी का केवल पांच मिनट ही इस कार्यक्रम के लिए मिल पाएगा। दुर्गाबाई उतने से ही संतुष्ट थीं।

स्कूल का मैदान रेलवे स्टेशन और टाउन हॉल के बीच में ही पड़ता था इसलिए गांधीजी पहले महिलाओं की इस विशेष सभा में ही पहुंचे। वहाँ एक हजार से अधिक महिलाएं जुटी थीं। जैसे ही गांधीजी ने बोलना शुरू किया, वे बोलते चले गए। आधा घंटा बीत गया लेकिन गांधी लगातार बोलते जा रहे थे और महिलाएं अपने आभूषण, कंगन, गले के कीमती हार आदि उनके कदमों में रखती जा रही थीं। इस तरह लगभग पच्चीस हजार रुपयों की थैली इकट्ठा हो चुकी थी। गांधीजी ने महिलाओं की मुक्ति पर जोर देते हुए कहा कि देवदासी और बुर्का जैसी कुप्रथाओं को जाना ही होगा। गांधीजी का यह पूरा भाषण हिंदुस्तानी में था और इसका तेलुगु में अनुवाद वह 12 वर्षीया लड़की ही कर रही थी ।

इसके बाद जब वो सबके साथ गांधीजी को स्कूल के दरवाजे तक छोड़ने गईं, तो गांधीजी ने उनसे कहा- ‘दुर्गा, आओ मेरे साथ मेरी कार में बैठो।’ वह छोटी बच्ची दुर्गाबाई कार की पिछली सीट पर कस्तूरबा के साथ जा बैठी। बगल में प्रभावती (जयप्रकाश नारायण की पत्नी) भी बैठी थीं। जब गांधी जी टाउन हॉल में पहुंचे और वहां सभा को संबोधित करना शुरू किया तो वहां के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी कोंडा वेंकटाप्पैय्या ने गांधीजी के हिंदुस्तानी में दिए जा रहे भाषण को तेलुगु में अनुवाद करना शुरू किया। गांधीजी ने बीच में ही उन्हें रोककर कहा- ‘वेंकटाप्पैय्या, अनुवाद दुर्गा को करने दो। आज सुबह उसने मेरे भाषण का क्या खूब अनुवाद किया है।’ इसके बाद से गांधीजी ने जब भी आंध्र का दौरा किया तो दुर्गाबाई ने ही उनके अनुवादक का काम किया।

दुर्गाबाई ने गांधीजी के सामने ही विदेशी कपड़ों की होली जलाई। अपने कीमती आभूषण उन्होंने आजादी के आन्दोलन के लिए गाँधी जी को दान में दे दिए तथा स्वयं को एक स्वयं सेविका के रूप में समर्पित कर दिया। महात्मा गांधी भी इस छोटी सी लडकी के साहस को देखकर दंग रह गये थे।

यही वो बच्ची थी जिसने बाद में जब काकीनाड़ा में  कांग्रेस का अधिवेशन था तब जवाहरलाल नेहरु को बिना टिकट प्रदर्शनी में जाने से रोक दिया था। पंडित नेहरु इस लडकी की कर्तव्यनिष्ठा एवं समर्पण से बहुत प्रभावित हुए थे तथा टिकट लेकर ही अंदर गये थे।

धीरे-धीरे दुर्गाबाई पूरी तरह से आज़ादी की लड़ाई में कूद गईं और इस दौरान मद्रास में नमक सत्याग्रह का आंदोलन शुरू किया। इस बीच उन्हें तीन बार जेल भी जाना पड़ा। एक बार तो उन्हें मदुरै जेल में एक साल का एकांत कारावास भी झेलना पड़ा था। इसके चलते वे अस्वस्थ हो गईं और कुछ दिन गांधीजी के आश्रम में गांधीजी और कस्तूरबा के साथ भी रहीं। इसके बाद उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अपने सपने को फिर से पूरा करने की ठानी। बहुत तैयारियों के बाद महामना मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से उन्होंने विशिष्टता के साथ मैट्रिक की परीक्षा पास की। इस दौरान उन्होंने मालवीय जी का भी ध्यान खींचा। मालवीय जी की मदद से उन्होंने बीएचयू से ही इंटरमीडिएट भी विशिष्टता के साथ उत्तीर्ण की। इसका पुरस्कार देने के लिए स्वयं महात्मा गांधी को वहां आमंत्रित किया गया था। दुर्गाबाई को अपने हाथों से यह पुरस्कार देते हुए महात्मा गांधी ने कहा था, ‘तुमने जीवन के इस क्षेत्र में भी कमाल किया है दुर्गा!’

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में आगे की पढ़ाई की उनकी इच्छा भी संघर्षमय ही रही और फिर आंध्र विश्वविद्यालय से स्नातक किया। आगे लॉ कॉलेज में पढ़ते हुए ही दुर्गाबाई ने मद्रास में ‘आंध्र महिला सभा’ की नींव रखी। महिलाओं की शिक्षा, रोजगारपरक प्रशिक्षण और महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में इस संस्था ने अपनी खास पहचान बनाई और देशभर के कई महत्वपूर्ण व्यक्ति इससे जुड़े जिनमें सरोजिनी नायडू, सुचेता कृपलानी, जयपुर के महाराजा विक्रमदेव वर्मा, मिर्जापुर की महारानी और डॉ. विधानचंद्र रॉय प्रमुख थे। 1946 में मद्रास में ‘आंध्र महिला सभा’ के नए भवन की नींव रखने स्वयं महात्मा गांधी गए थे। उसी साल दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा ने हिंदी के प्रचार-प्रसार में योगदान के लिए महात्मा गांधी के हाथों ही उन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित किया।

बाल विवाह को थोड़ी समझ होते ही इसे नकार देने वाली दुर्गाबाई ने दूसरा विवाह चिंतामण द्वारकानाथ देशमुख से किया। अत्यंत मेधावी और ICS रहे देशमुख रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के पहले भारतीय गवर्नर थे। बाद में वे भारत के द्वितीय वित्त मंत्री भी बने। योजना आयोग की स्थापना के समय से ही वे इसके सदस्य बने। विवाह से ठीक पहले दुर्गाबाई योजना आयोग से अपना इस्तीफा लेकर नेहरू जी के पास गई थीं कि पति-पत्नी का एक साथ योजना आयोग में रहना ठीक नहीं होगा। इस पर नेहरू जी ने इस्तीफा नामंजूर करते हुए कहा था कि योजना आयोग में तुम्हारी नियक्ति देशमुख ने नहीं, मैंने की है। नेहरू जी ने ही इनके विवाह में प्रथम गवाह की भूमिका भी निभाई थी।


आज़ादी के बाद संविधान सभा की गिनी-चुनी महिला सदस्यों में दुर्गाबाई प्रमुख थीं और इसके सभापति के पैनल में वे अकेली महिला थीं। संविधान सभा और बाद में अंतरिम सरकार में होने वाली बहसों में वे बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थीं। खासकर वंचितों और महिलाओं के अधिकारों और बजटीय प्रावधानों के लिए वे मंत्रियों को परेशान करके रखती थीं। दुर्गाबाई को सरदार पटेल का भी बहुत स्नेह प्राप्त था।

दुर्गाबाई देशमुख वह नारी-मुक्तिवादी महिला हैं, जिन्होंने बतौर अस्थायी सांसद संविधान सभा में कम-से-कम 750 संशोधन प्रस्ताव रखे।

संचालन समिति की सदस्य होने के नाते, संविधान सभा की बहसों में उन्होंने मुखर रूप से हिन्दू कोड बिल के तहत महिलाओं के लिए संपत्ति के अधिकार की पैरवी की। इसके अलावा उन्होंने न्यायपालिका की स्वतंत्रता, हिन्दुस्तानी (हिंदी और उर्दू भाषा का मिश्रण) भाषा का राष्ट्रभाषा के तौर पर चयन और राज्य परिषद की सीट के लिए उम्र सीमा 35 साल से कम करके 30 साल करने का भी समर्थन किया।

भारत में लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा के लिए 1958 में गठित ‘नेशनल काउंसिल फॉर वीमेंस एजुकेशन’ की पहली अध्यक्ष दुर्गाबाई देशमुख को ही बनाया गया था। भारतीय न्यायपालिका में ‘फैमिली कोर्ट’ की व्यवस्था लाने का श्रेय भी उन्हीं को दिया जाता है। सामाजिक शोध के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली नई दिल्ली स्थित संस्था ‘काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट’ की स्थापना भी उन्होंने ही की थी।

उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर नई दिल्ली में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर और काउंसिल ऑफ सोशल डेवलपमेंट एंड पॉपुलेशन काउंसिल ऑफ इंडिया की कल्पना की।

गांधी जी के विचारों से प्रभावित, उनके प्रति समर्पित दुर्गाबाई जी का जीवन इस बात की मिसाल है कि गाँधीविचार स्त्री अधिकारों की राह में बाधा नहीं है। जिनकी नजर में जिस कारण से है, वो अलग बात है। 


नारी मुक्ति की दुकान चलाने वाले अधिकांश वर्तमान चेहरे जो करें-कहें, भविष्य के चेहरे जब दिल्ली में पिंक लाइन के साउथ कैम्पस मेट्रो स्टेशन जिसका नाम दुर्गाबाई देशमुख रखा गया है के समीप से गुजरें तो जरा एक बार उन्हें जरूर याद कर लें, आपके आसपास इनसे अंजान बच्चे हों तो उन्हें भी बताएं। वर्ना कोई पुराना सा नाम लगते कोई मॉडर्न नाम इसकी जगह ले लेगा पता भी न चलेगा।  

(संदर्भ तथा तस्वीरें इंटरनेट से संकलित)

Thursday, July 8, 2021

गांधीवाद की छुवन के प्रभाव को जन-जन तक पहुंचाने वाले गिरिराज किशोर

 

आज प्रख्यात साहित्यकार गिरिराज किशोर जी की जन्मतिथि है।



गांधी जी की खुद लिखी आत्मकथा और पुस्तकों के बाद भी यदि उनके बारे में जानने के लिए कोई अपरिहार्य पुस्तक है तो उनमें एक सर्वोपरि स्थान 'पहला गिरमिटिया' का है। एक लेखक के रूप में उनकी अपनी ही पहचान थी और अपनी रचना 'ढ़ाई घर' के लिए वो 'साहित्य अकादमी' से सम्मानित भी हो चुके थे।


शायद दैनंदिन गांधी जी की किसी-न-किसी रूप में वैचारिक हत्या किये जाने की बढ़ती प्रवृत्ति ने उन्हें गांधी जी को अपनी अप्रतिम रचना का विषय बनाने को प्रेरित किया। इस विषय पर लेखन के लिए तथ्यों के संग्रह के जुनून ने उन्हें गांधी जी से जुड़े देश-विदेश के कई स्थानों की अथक यात्रा करवाई। आखिरकार आठ-नौ वर्षों के अथक परिश्रम के पश्चात नौ सौ पृष्ठों का यह दीर्घ उपन्यास हिंदी साहित्य को प्राप्त हुआ और एक धरोहर के रूप में संरक्षित हो गया। 


गांधी जी के भाव किसी को स्पर्श कर दें तो उसका जीवन कैसे प्रभावित हो सकता है, गिरिराज जी इसके प्रत्यक्ष उदाहरण थे। शायद इन दोनों के मध्य भी कोई 'गिरमिट' हो गया रहा हो!


उपन्यास की रचना प्रक्रिया के दौरान  लेखक शैलेश मटियानी जी ने उनसे कहा था, 'गिरिराज जी, गाँधीजी की लाठी लगने की बात है, अगर छू गई तो उपन्यास पूरा हो जाएगा...!' और शायद यह गांधी जी का दिव्य स्पर्श या अदृश्य चयन रहा हो जिसने इस युग के एक जरुरी कार्य के लिए अपने एक सुपात्र का चयन किया और उसने अपने दायित्व का बखूबी निर्वहन भी किया। 


गिरिराज जी का काम यहीं नहीं रुका। 'पहला गिरमिटिया' के कथानक को संपूर्णता देने के लिए उन्होंने 'बा' उपन्यास की भी रचना की जो उनके जीवन पर भी गहन शोध पर आधारित था। 


गांधी जी पर दीर्घ शोध के बावजूद वो गांधीवाद के अंध अनुयायी नहीं थे और इसे लेकर उनके कुछ संशय भी थे, जो वो स्पष्ट प्रकट करते भी रहते थे। उनका यह गुण भी तो गांधी जी के प्रिय गुणों में ही था।


गांधी जी के नेताजी के साथ आधारहीन बातें तो खूब फैलाई जाती हैं, पर गिरिराज किशोर जी द्वारा ही उद्धृत एक प्रसंग उनके घरेलू रिश्तों को भी सामने लाता है। 


"सुभाषचंद्र बोस आइसीएस के बाद जब भारत आए तो सबसे पहले वे गांधी जी से मिलने आश्रम गए। 'महानायक' में भी इस घटना का उल्लेख है। सुभाष बाबू चाय पीते थे। आश्रम में चाय प्रतिबंधित थी। बा उन्हें रसोई में बुलाकर चाय पिला देती थीं। एक दिन जब बा चाय दे रही थीं, तो बापू आ गए। वे बोले कि आश्रम में चाय पीने पर प्रतिबंध है। बा ने जवाब दिया कि आश्रमवासियों के लिए है, सुभाष अति‌थि हैं। उन पर प्रतिबंध लागू नहीं होता। बापू कस्तूर की तरफ देखने लगे। कस्तूरबा ने कहा रसोई पर मेरा अधिकार है... बापू चुपचाप चले गए।"


गिरिराज जी कहते थे कि गांधी जी के बारे में बहुत गलत बातें फैलाई जा रही हैं, जिनके प्रति जागरूकता जरूरी है।


उनकी इस बात को आज और भी गंभीरता से लिये जाने की जरूरत है। 

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