27 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी अपनी हत्या से तीन दिन पूर्व अपनी अंतिम मुख्य गतिविधि के रूप में सांप्रदायिक हिंसा में जल रही दिल्ली में शांति लाने के उद्देश्य से महरौली स्थित कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी दरगाह गए थे। दंगों के दौरान उस पवित्र स्थान पर हमला किया गया था और वहां काफी बर्बरता की गई थी। आज दिल्ली की सर्दी का अनुभव कर रहे लोग अनुमान लगा सकें कि जब उन दिनों भी दिल्ली में कड़ाके की ठंड पड़ रही थी और सांप्रदायिक तनाव के दौरान इससे हुए नुकसान को देखने के लिए 79 वर्षीय गांधी जी जो कुछ समय पहले ही उपवास पर थे, इसलिए काफी कमजोर भी पड़ गए थे और अस्वस्थ थे; सुबह आठ बजे वहां पहुंच गए थे। वह इस हिंसा से काफी क्षुब्ध थे। उस समय उनके साथ मौलाना आजाद और राज कुमारी अमृत कौर भी थीं।
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Thursday, January 27, 2022
कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी दरगाह में महात्मा गांधी
यहां उन्होंने अपने संबोधन में कहा-
"... मुझको थोड़ा सा भी मन में नहीं था कि यहाँ बोलना होगा। मैं तो एक यात्री की हैसियत से आया हूँ। मैंने थोड़े दिनों के पहले सुना था कि हर साल के जैसा मेला नहीं होगा अगर ऐसा होता तो मुझको भारी दुःख होता। आज तो मेरी आप से इतनी हो प्रार्थना है कि अगर हम हिंदू, सिख, मुसलमान यहाँ सच्चे दिल से आये हैं तो हम इस पाक जगह पर ऐसा निश्चय कर लें कि अब कभी भी झगड़ा नहीं करने देंगे। दोस्त होकर, हम एक होकर, भाई-भाई बनकर रहेंगे और तब तो दुनिया यही कहेगी कि दो भाई लड़ते थे, मगर आखिर एक-दूसरे के दुश्मन नहीं बने। भले हम ऊपर से जुदा-जुदा रहें, मगर आखिर एक पेड़ की पत्तियाँ ही हैं। शैतान की बंदगी करने वाले की बात नहीं करता हूँ। और मेरी जिंदगी तो चलती आई है, कोई चीज नई नहीं है। अभी भी कहीं-न-कहीं तो लड़ते ही हैं। आज ही पढ़ा कि सरहद में हिन्दू काटे गये। इसलिए यहाँके मुसलमानों को दुःख होना चाहिए। हम यह सोचें कि अपने दिल को साबुत रखें। जो वहाँ मारे गये हैं वे अब तो वापस नहीं आयेंगे मगर हम वहाँ चिट्ठी लिखें तब यही लिखें कि इसका बदला किसी का कत्ल करके नहीं लेंगे। मगर और पाक बनेंगे, और मुहब्बत करेंगे। यह जब समझ लें तब तो हिंद के लिए खैर है। फाका छोड़ने का यही मतलब था कि देहली के हिन्दू-मुसलमान पाक बनें। अगर मुझे सिर्फ जिंदा रखने के लिए ही फाका छुड़वाया हो तब तो वह गलत ही है।..."
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