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Thursday, January 27, 2022

कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी दरगाह में महात्मा गांधी


27 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी अपनी हत्या से तीन दिन पूर्व अपनी अंतिम मुख्य गतिविधि के रूप में सांप्रदायिक हिंसा में जल रही दिल्ली में शांति लाने के उद्देश्य से महरौली स्थित कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी दरगाह गए थे। दंगों के दौरान उस पवित्र स्थान पर हमला किया गया था और वहां काफी बर्बरता की गई थी। आज दिल्ली की सर्दी का अनुभव कर रहे लोग अनुमान लगा सकें कि जब उन दिनों भी दिल्ली में कड़ाके की ठंड पड़ रही थी और सांप्रदायिक तनाव के दौरान इससे हुए नुकसान को देखने के लिए 79 वर्षीय गांधी जी जो कुछ समय पहले ही उपवास पर थे, इसलिए काफी कमजोर भी पड़ गए थे और अस्वस्थ थे; सुबह आठ बजे वहां पहुंच गए थे। वह इस हिंसा से काफी क्षुब्ध थे। उस समय उनके साथ मौलाना आजाद और राज कुमारी अमृत कौर भी थीं।


                                               


यहां उन्होंने अपने संबोधन में कहा-
"... मुझको थोड़ा सा भी मन में नहीं था कि यहाँ बोलना होगा। मैं तो एक यात्री की हैसियत से आया हूँ। मैंने थोड़े दिनों के पहले सुना था कि हर साल के जैसा मेला नहीं होगा अगर ऐसा होता तो मुझको भारी दुःख होता। आज तो मेरी आप से इतनी हो प्रार्थना है कि अगर हम हिंदू, सिख, मुसलमान यहाँ सच्चे दिल से आये हैं तो हम इस पाक जगह पर ऐसा निश्चय कर लें कि अब कभी भी झगड़ा नहीं करने देंगे। दोस्त होकर, हम एक होकर, भाई-भाई बनकर रहेंगे और तब तो दुनिया यही कहेगी कि दो भाई लड़ते थे, मगर आखिर एक-दूसरे के दुश्मन नहीं बने। भले हम ऊपर से जुदा-जुदा रहें, मगर आखिर एक पेड़ की पत्तियाँ ही हैं। शैतान की बंदगी करने वाले की बात नहीं करता हूँ। और मेरी जिंदगी तो चलती आई है, कोई चीज नई नहीं है। अभी भी कहीं-न-कहीं तो लड़ते ही हैं। आज ही पढ़ा कि सरहद में हिन्दू काटे गये। इसलिए यहाँके मुसलमानों को दुःख होना चाहिए। हम यह सोचें कि अपने दिल को साबुत रखें। जो वहाँ मारे गये हैं वे अब तो वापस नहीं आयेंगे मगर हम वहाँ चिट्ठी लिखें तब यही लिखें कि इसका बदला किसी का कत्ल करके नहीं लेंगे। मगर और पाक बनेंगे, और मुहब्बत करेंगे। यह जब समझ लें तब तो हिंद के लिए खैर है। फाका छोड़ने का यही मतलब था कि देहली के हिन्दू-मुसलमान पाक बनें। अगर मुझे सिर्फ जिंदा रखने के लिए ही फाका छुड़वाया हो तब तो वह गलत ही है।..."

Saturday, August 21, 2021

गांधी जी के हाथों में लाठी थमाने वाले काका कालेलकर

 


गाँधीवादी विचारधारा को अपनाने वाले भारत के महान साहित्यकार एवं लेखक काका कालेलकर जी की आज पुण्यतिथि है। इनका पूरा नाम दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर था। इनका जन्म 1 दिसंबर, 1885 को सतारा, महाराष्ट्र में हुआ।

काका कालेलकर जी महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव कलेली के मूल निवासी थे, जहाँ से इन्हें इनका उपनाम कालेलकर मिला। कालेलकर जी ने अपनी प्राथमिक शिक्षा वहां के स्थानीय स्कूल से ही प्राप्त की। इसके बाद सन 1903 में इन्होने अपनी मेट्रिक की परीक्षा पास की, और सन 1907 में पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज से इन्होने दर्शनशास्त्र स्नातक पूरा किया।

काका कालेलकर जी ने ‘राष्ट्रमत’ नाम के एक राष्ट्रवादी मराठी दैनिक के एडिटोरियल स्टाफ के रूप में कुछ समय के लिए कार्य किया था और फिर सन 1910 में बड़ौदा में गंगानाथ विद्यालय नाम के एक स्कूल में शिक्षक के रूप में कार्य किया।

कुछ सालों बाद, ब्रिटिश सरकार ने सन 1912 में अपनी राष्ट्रवादी भावना के कारण स्कूल को बंद करवा दिया, तब कालेलकर जी ने पैदल ही हिमालय की यात्रा करने का फैसला किया, और वे चल दिए। इसके बाद उन्होंने सन 1913 में बर्मा यानि म्यांमार की यात्रा की, जहाँ वे आचार्य कृपालनी के साथ शामिल हुए।

बर्मा की यात्रा के बाद इनकी मुलाकात सन 1915 में महात्मा गाँधी जी से हुई। गाँधी जी से मिलने के बाद वे उनसे बहुत प्रभावित हुए, और उनसे प्रभावित होकर वे साबरमती आश्रम के सदस्य बने। इसके बाद कालेलकर जी ने साबरमती आश्रम की राष्ट्रीय शाला में भी पढ़ाया। कुछ समय के लिए उन्होंने सर्वोदय के सम्पादक के रूप में सेवा की, जिसे आश्रम के परिसर द्वारा चलाया जाता था। गाँधी जी ने कालेलकर जी को प्रोत्साहित किया, जिसके बाद उन्होंने अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना में सक्रिय भूमिका निभाई और सन 1928 में वे इसके वाइस – चांसलर बने। गाँधी जी के साथ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलनों में कालेलकर जी पूरी निष्ठा से शामिल होते थे। इस कारण से उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा।  1930 में पूना के यरवदा जेल में गांधी जी के साथ उन्होंने महत्वपूर्ण समय बिताया। सन 1939 में काका कालेलकर जी ने गुजरात विद्यापीठ से सेवानिवृत्ति ले ली।

सन 1935 में कालेलकर जी राष्ट्रभाषा समिति के सदस्य बने, इस समिति का मुख्य उद्देश्य हिंदी जो कि हिन्दुस्तानी भाषा है, को भारत की राष्ट्रीय भाषा के रूप में लोकप्रिय बनाना था।

वे सन 1948 में गाँधी जी की मृत्यु के बाद से गाँधी स्मारक निधि से अपनी मृत्यु तक जुड़े हुए थे।

सन 1952 से सन 1964 तक काका कालेलकर जी को राज्य सभा के सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया था

सन 1959 में कालेलकर जी ने गुजराती साहित्य परिषद की अध्यक्षता की थी। इसके बाद सन 1967 में इन्होंने एक वेदशाला ‘गाँधी विद्यापीठ’ की स्थापना की, और इसके उपाध्यक्ष के रूप में कार्य किया।

महात्मा गाँधी जी ने कालेलकर जी को ‘सवई गुजराती’ नाम दिया था। दरअसल उनकी मातृभाषा मराठी होने के बावजूद भी कालेलकर जी को गुजराती भाषा का बहुत अच्छे तरीके से ज्ञान था। इसलिए गाँधी जी ने कालेलकर जी को यह नाम दिया।

29 जनवरी सन 1953 में भारत के संविधान के अनुच्छेद 340 का पालन करते हुए पहले पिछड़े वर्ग आयोग की स्थापना की गई थी। यह उस समय के भारत के राष्ट्रपति के आदेश पर काका कालेलकर जी की अध्यक्षता में की गई थी। इस पहले पिछड़े वर्ग आयोग को काका कालेलकर आयोग के नाम से भी जाना जाता है।

काका कालेलकर जी ने हिंदी, गुजराती, मराठी एवं अंग्रेजी भाषाओँ में उल्लेखनीय एवं शानदार किताबें लिखी, जिनमें प्रमुख हैं-

महात्मा गाँधी का स्वदेशी धर्म एवं राष्ट्रीय शिक्षा का आदर्श, क्विंटेसेंस ऑफ गांधियन थॉट, प्रोफाइल्स इन इंस्पिरेशन, स्ट्रे ग्लिमप्सेस ऑफ बापू, महात्मा गाँधी’स गॉस्पेल ऑफ स्वदेशी, हिमालयातिल प्रवास आदि।

सन 1965 में काका कालेलकर जी को गुजराती भाषा में लिखी गई जीवन – व्यवस्था किताब जो कि गुजराती भाषा में निबंधों का संग्रह है, के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ।

कालेलकर जी की साहित्यिक उपलब्धियों के लिए उन्हें सन 1971 में साहित्य अकादमी फेलोशिप भी दी गई थी।
इसके अलावा भारत सरकार द्वारा कालेलकर जी को सन 1964 में पद्म विभूषण पुरस्कार जोकि भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है से सम्मानित किया गया था।
सन 1985 में कालेलकर जी के सम्मान में एक स्मारकीय डाक टिकट भी जारी किया गया।

गुजरात में हिंदी-प्रचार को जो सफलता मिली, उसका मुख्य श्रेय काका साहब को है।

काका कालेलकर जी का निधन 21 अगस्त 1981 को 96 साल की उम्र में हुआ।


गांधी जी को थमाई लाठी:

स्वास्थ्य के के प्रति सचेत गांधी जी के हाथों में लाठी स्वाभाविक चीज नहीं थी। लेकिन हाथों में इसे थामने के पीछे काका कालेलकर की प्रभावी भूमिका मानी जाती है।
जब अहमदाबाद के साबरमती आश्रम में गांधीजी अपने ऐतिहासिक दांडी मार्च यानी नमक सत्याग्रह की तैयारी कर रहे थे, वहां उनसे मिलने के लिए काका कालेलकर आए। वो उनकी पैदल यात्रा को लेकर थोड़ा चिंतित थे।।इसके लिए उन्होंने गांधीजी को सुझाया कि साथ में एक लाठी लेकर चलना यात्रा को कुछ बेहतर बना सकेगा।

काका कालेलकर ने केवल ये सुझाव ही नहीं दिया, बल्कि वे अपने साथ एक लाठी लेकर भी आए थे। उन्होंने गांधी को लाठी सौंप दी और पूरी यात्रा के दौरान गांधीजी लाठी लेकर चलते रहे। रास्ते में कई नदियां भी पड़ीं, जिनकी धाराओं को उन्होंने लाठी लेकर पार किया। वे अपने साथियों के साथ रोज 12 से 20 किलोमीटर तक चलते थे, बीच-बीच में पड़ने वाले गांवों से भी लोग जुड़ते रहे। इस तरह से 24 दिनों की यात्रा के बाद 6 अप्रैल, 1930 को दांडी गांधीजी ने समुद्रतट पर नमक कानून तोड़ा।

नमक जैसी निहायत जरूरी चीज पर अंग्रेजी-टैक्स के विरोध में तय की गई इस यात्रा की ढेरों तस्वीरें मिलती हैं, जिनमें गांधी लाठी लेकर चलते दिख रहे हैं। तेजी से लाठी टेकते और हजारों की भीड़ संग आगे बढ़ते गांधीजी की तस्वीरें उस दौर में भी सर्वत्र छा गईं, उनकी छवि के साथ एकाकार हो गईं। उनकी लाठी भी आंदोलन का प्रतीक बन गई। इसके बाद से गांधीजी के साथ भी हरदम लाठी दिखने लगी।

दिलचस्प बात ये है कि गांधीजी के हाथ में आने से पहले लाठी कई हाथों से गुजर चुकी थी। लाइव हिस्ट्री इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक ये लाठी कन्नड़ कवि एम गोविंद पई के पास थी। कर्नाटक के ये कवि अपनी कविताओं के अलावा देशप्रेम में भी काफी आगे थे। यही वजह बताई जाती है कि दूसरी कई भाषाएं और खासकर अंग्रेजी में गोल्ड मेडल लेने के बाद भी पई ने कन्नड़ में ही लिखा।

उनके देशप्रेम पर लिखते हुए बारे कन्नड़ लेखन किन्हन्ना पई ने अपनी किताब महाकवि गोविंद पई में लिखा है कि पई गांधीजी के आंदोलन में सहयोग के सिलसिले में काका कालेलकर से मिले और यहीं दोनों दोस्त बन गए जो दोस्ती पूरी उम्र रही। पई ने अपने इस मित्र को यादगार के लिए लाठी भेंट की थी। ये लाठी पई के लिए बेहद खास थी क्योंकि ये उन्हें उनके दादा से मिली थी। यही लाठी गांधीजी की पैदल यात्रा को देखते हुए काका कालेलकर ने उन्हें दे दी।

गांधीजी के साथ ये लाठी पूरी उम्र रही। साल 1948 में गांधीजी की हत्या के बाद उनसे जुड़ी सारे चीजें यादगार के तौर पर अलग-अलग संग्रहालयों में सहेज दी गईं। लेकिन कोई भी शायद उतनी ख्यात न रही हो, जितनी गांधीजी की लाठी और चश्मा रहे। नेशनल गांधी म्यूजियम में आज भी ये लाठी गांधीजी की कई अन्य लाठियों के बीच रखी हुई है।

एक निष्ठावान गांधीवादी कार्यकर्ता के रूप में उनका जीवन एक मिसाल है।

(स्रोत तथा तस्वीरें: इंटरनेट पर उपलब्ध विभिन्न सामग्री)

Thursday, July 29, 2021

गांधी जी की विद्रोहिणी पुत्री: अरुणा आसफ़ अली

 





आज प्रसिद्ध क्रांतिकारी अरुणा आसफ़ अली जी की पुण्यतिथि है। स्वभाव से विद्रोहिणी अरुणा जी के व्यक्तित्व की झलक उनकी राजनीतिक यात्रा से भी मिलती है। 1948 में अरुणा जी कांग्रेस छोड़कर सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गईं। दो साल बाद 1950 में वो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य बनीं। कम्युनिस्ट पार्टी से मोह भंग होने के बाद 1958 में उन्होंने पार्टी छोड़ दी। 1958 में वो दिल्ली की पहली महिला मेयर बनीं। सन् 1964 ई. में पं. जवाहरलाल नेहरू जी के निधन के पश्चात वे पुनः कांग्रेस से जुड़ीं, किंतु अधिक सक्रिय नहीं रहीं।


उनके लिए गांधी जी ने कहा था- "अरुणा मेरी पुत्री है; भले ही यह विद्रोहिणी हो, या मेरे घर में पैदा न हुई हो, पर मेरे लिए तो वह हर हालत में पुत्री ही रहेगी।"


एक भाषण में उन्होंने कहा था- 


"मुझसे कई बार पूछा जाता है कि तुम 1942 के पहले तो समाजवादी न थीं, अब कैसे बन गई? तुम पूंजीपतियों की निंदा क्यों करती हो?... इन सब बातों के कारण भी उपर्युक्त हैं। बापू जी के उपवास के वक्त मैंने कई धनवानों को अपने हाथों से पत्र लिखे थे कि 'कृपया लिनलिथगो से मिलिए', 'बापू जी की जिंदगी बचाईये'। उन लोगों का जवाब मिला 'हमारे हाथ बंधे हैं', 'हम लाचार हैं', 'आपकी मदद नहीं कर सकते'- आज वे ही पूंजीपति ब्रिटेन के उद्योगपतियों के साथ मिलकर और करारनामा करके भारत में ब्रिटिश माल मंगाने की व्यवस्था कर रहे हैं, ब्रिटिश माल पर भारत की छाप लगा कर बेच रहे हैं। उनके प्रति मेरी घृणा का यही कारण है।


आज हमें सिर्फ संघर्ष के बाद करना है, हम समझौतों को नहीं मानते न एटली या उनकी मजदूर सरकार को पहचानते हैं। हमारी सबसे ज्यादा पहचान तो बंबई की पुलिस है। आज भाषण या ठहराव करने का जमाना नहीं, जरूरत है काम करने की, लड़ाई के लिए तैयारी करने की।... आज मैं आपके सामने भाषण कर रही हूँ, कौन जानता है कल या उसके बाद वर्षों तक मैं आपके सामने आ भी न सकूं। गांधी जी ने ही हम लोगों को असहयोग का मंत्र दिया है, और आजादी का मार्ग भी यही है, हिंसा या अहिंसा उसके के साधन मात्र हैं। असहयोग स्वतंत्रता का एक महत्वपूर्ण उपाय है। गांधीजी के असहयोग मंत्र देने के बाद आज 40 करोड़ की आंखों में एक नई ज्योति दिखाई देती है। आज हमारे सम्मुख गांधीजी के उस असहयोग को अपने-आप में समा लेने का प्रश्न है।"

Thursday, July 15, 2021

दुर्गाबाई देशमुख: छोटी सी गुड़िया की लंबी कहानी...



असहयोग आंदोलन पूरे देश में जोर-शोर से चल रहा था। महात्मा गांधी पूरे भारत में घूम-घूमकर लोगों को संबोधित कर रहे थे। 2 अप्रैल, 1921 को महात्मा गांधी आंध्र प्रदेश के काकीनाड़ा में एक सभा करनेवाले थे। मुख्य कार्यक्रम वहां के टाउन हॉल में आयोजित होने वाला था। जब इस बारे में वहां के एक बालिका विद्यालय की 12 साल की छात्रा को पता चला, तो उसने तय किया कि वह वहां की प्रचलित देवदासी प्रथा की शिकार महिलाओं को तथा बुर्का कुप्रथा की शिकार मुस्लिम महिलाओं को भी गांधीजी से मिलवाएंगी। वह चाहती थी गांधीजी इन महिलाओं को कुछ ऐसा संदेश दें जिससे ये इन कुप्रथाओं से उबर सकें।

किन्तु गाँधी जी से मिलना आसान नहीं था। उनके पास बहुत कम समय होता था और स्थानीय आयोजक अपने कार्यक्रम को लेकर बहुत व्यस्त थे, इसलिए आयोजकों ने टालने के लिए उस छोटी सी लड़की से कह दिया कि यदि उसने गांधीजी को देने के लिए पांच हजार रुपये का चंदा इकट्ठा कर लिया तो गांधीजी का दस मिनट का समय उन महिलाओं के लिए मिल जाएगा। आयोजकों ने हंसी-हंसी में सोचा होगा कि यह बच्ची भला पांच हजार रुपये कैसे इकट्ठा कर पाएगी। इसके बाद दुर्गाबाई अपनी देवदासी सहेलियों से जाकर मिली और इस शर्त के बारे में बताया। देवदासियों ने कहा कि रुपयों का इंतजाम तो हो जाएगा लेकिन वह रोज आकर उनसे मिले और उन्हें गांधीजी के देश के प्रति योगदान के बारे में बताए। कहा जाता है कि एक सप्ताह के भीतर ही रुपयों का इंतजाम हो गया।

अब समस्या थी कि गांधीजी से मिलने का यह कार्यक्रम किस जगह पर रखा जाए। देवदासियां और बुर्कानशीं महिलाएं आम सभा में जाने से हिचक रही थीं। स्थानीय आयोजकों ने कोई मदद नहीं की। इसलिए दुर्गाबाई ने उन्हें रुपये देने से इनकार कर दिया और खुद ही कार्यक्रम के लिए उपयुक्त जगह की तलाश में जुट गई। वह अपने स्कूल के हेडमास्टर शिवैया शास्त्री के पास गई और अनुरोध किया कि स्कूल के ही विशाल मैदान में कार्यक्रम आयोजित करने की अनुमति दी जाए। उन्होंने अनुमति दे दी। स्थानीय आयोजकों ने कहा कि गांधीजी का केवल पांच मिनट ही इस कार्यक्रम के लिए मिल पाएगा। दुर्गाबाई उतने से ही संतुष्ट थीं।

स्कूल का मैदान रेलवे स्टेशन और टाउन हॉल के बीच में ही पड़ता था इसलिए गांधीजी पहले महिलाओं की इस विशेष सभा में ही पहुंचे। वहाँ एक हजार से अधिक महिलाएं जुटी थीं। जैसे ही गांधीजी ने बोलना शुरू किया, वे बोलते चले गए। आधा घंटा बीत गया लेकिन गांधी लगातार बोलते जा रहे थे और महिलाएं अपने आभूषण, कंगन, गले के कीमती हार आदि उनके कदमों में रखती जा रही थीं। इस तरह लगभग पच्चीस हजार रुपयों की थैली इकट्ठा हो चुकी थी। गांधीजी ने महिलाओं की मुक्ति पर जोर देते हुए कहा कि देवदासी और बुर्का जैसी कुप्रथाओं को जाना ही होगा। गांधीजी का यह पूरा भाषण हिंदुस्तानी में था और इसका तेलुगु में अनुवाद वह 12 वर्षीया लड़की ही कर रही थी ।

इसके बाद जब वो सबके साथ गांधीजी को स्कूल के दरवाजे तक छोड़ने गईं, तो गांधीजी ने उनसे कहा- ‘दुर्गा, आओ मेरे साथ मेरी कार में बैठो।’ वह छोटी बच्ची दुर्गाबाई कार की पिछली सीट पर कस्तूरबा के साथ जा बैठी। बगल में प्रभावती (जयप्रकाश नारायण की पत्नी) भी बैठी थीं। जब गांधी जी टाउन हॉल में पहुंचे और वहां सभा को संबोधित करना शुरू किया तो वहां के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी कोंडा वेंकटाप्पैय्या ने गांधीजी के हिंदुस्तानी में दिए जा रहे भाषण को तेलुगु में अनुवाद करना शुरू किया। गांधीजी ने बीच में ही उन्हें रोककर कहा- ‘वेंकटाप्पैय्या, अनुवाद दुर्गा को करने दो। आज सुबह उसने मेरे भाषण का क्या खूब अनुवाद किया है।’ इसके बाद से गांधीजी ने जब भी आंध्र का दौरा किया तो दुर्गाबाई ने ही उनके अनुवादक का काम किया।

दुर्गाबाई ने गांधीजी के सामने ही विदेशी कपड़ों की होली जलाई। अपने कीमती आभूषण उन्होंने आजादी के आन्दोलन के लिए गाँधी जी को दान में दे दिए तथा स्वयं को एक स्वयं सेविका के रूप में समर्पित कर दिया। महात्मा गांधी भी इस छोटी सी लडकी के साहस को देखकर दंग रह गये थे।

यही वो बच्ची थी जिसने बाद में जब काकीनाड़ा में  कांग्रेस का अधिवेशन था तब जवाहरलाल नेहरु को बिना टिकट प्रदर्शनी में जाने से रोक दिया था। पंडित नेहरु इस लडकी की कर्तव्यनिष्ठा एवं समर्पण से बहुत प्रभावित हुए थे तथा टिकट लेकर ही अंदर गये थे।

धीरे-धीरे दुर्गाबाई पूरी तरह से आज़ादी की लड़ाई में कूद गईं और इस दौरान मद्रास में नमक सत्याग्रह का आंदोलन शुरू किया। इस बीच उन्हें तीन बार जेल भी जाना पड़ा। एक बार तो उन्हें मदुरै जेल में एक साल का एकांत कारावास भी झेलना पड़ा था। इसके चलते वे अस्वस्थ हो गईं और कुछ दिन गांधीजी के आश्रम में गांधीजी और कस्तूरबा के साथ भी रहीं। इसके बाद उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अपने सपने को फिर से पूरा करने की ठानी। बहुत तैयारियों के बाद महामना मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से उन्होंने विशिष्टता के साथ मैट्रिक की परीक्षा पास की। इस दौरान उन्होंने मालवीय जी का भी ध्यान खींचा। मालवीय जी की मदद से उन्होंने बीएचयू से ही इंटरमीडिएट भी विशिष्टता के साथ उत्तीर्ण की। इसका पुरस्कार देने के लिए स्वयं महात्मा गांधी को वहां आमंत्रित किया गया था। दुर्गाबाई को अपने हाथों से यह पुरस्कार देते हुए महात्मा गांधी ने कहा था, ‘तुमने जीवन के इस क्षेत्र में भी कमाल किया है दुर्गा!’

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में आगे की पढ़ाई की उनकी इच्छा भी संघर्षमय ही रही और फिर आंध्र विश्वविद्यालय से स्नातक किया। आगे लॉ कॉलेज में पढ़ते हुए ही दुर्गाबाई ने मद्रास में ‘आंध्र महिला सभा’ की नींव रखी। महिलाओं की शिक्षा, रोजगारपरक प्रशिक्षण और महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में इस संस्था ने अपनी खास पहचान बनाई और देशभर के कई महत्वपूर्ण व्यक्ति इससे जुड़े जिनमें सरोजिनी नायडू, सुचेता कृपलानी, जयपुर के महाराजा विक्रमदेव वर्मा, मिर्जापुर की महारानी और डॉ. विधानचंद्र रॉय प्रमुख थे। 1946 में मद्रास में ‘आंध्र महिला सभा’ के नए भवन की नींव रखने स्वयं महात्मा गांधी गए थे। उसी साल दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा ने हिंदी के प्रचार-प्रसार में योगदान के लिए महात्मा गांधी के हाथों ही उन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित किया।

बाल विवाह को थोड़ी समझ होते ही इसे नकार देने वाली दुर्गाबाई ने दूसरा विवाह चिंतामण द्वारकानाथ देशमुख से किया। अत्यंत मेधावी और ICS रहे देशमुख रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के पहले भारतीय गवर्नर थे। बाद में वे भारत के द्वितीय वित्त मंत्री भी बने। योजना आयोग की स्थापना के समय से ही वे इसके सदस्य बने। विवाह से ठीक पहले दुर्गाबाई योजना आयोग से अपना इस्तीफा लेकर नेहरू जी के पास गई थीं कि पति-पत्नी का एक साथ योजना आयोग में रहना ठीक नहीं होगा। इस पर नेहरू जी ने इस्तीफा नामंजूर करते हुए कहा था कि योजना आयोग में तुम्हारी नियक्ति देशमुख ने नहीं, मैंने की है। नेहरू जी ने ही इनके विवाह में प्रथम गवाह की भूमिका भी निभाई थी।


आज़ादी के बाद संविधान सभा की गिनी-चुनी महिला सदस्यों में दुर्गाबाई प्रमुख थीं और इसके सभापति के पैनल में वे अकेली महिला थीं। संविधान सभा और बाद में अंतरिम सरकार में होने वाली बहसों में वे बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थीं। खासकर वंचितों और महिलाओं के अधिकारों और बजटीय प्रावधानों के लिए वे मंत्रियों को परेशान करके रखती थीं। दुर्गाबाई को सरदार पटेल का भी बहुत स्नेह प्राप्त था।

दुर्गाबाई देशमुख वह नारी-मुक्तिवादी महिला हैं, जिन्होंने बतौर अस्थायी सांसद संविधान सभा में कम-से-कम 750 संशोधन प्रस्ताव रखे।

संचालन समिति की सदस्य होने के नाते, संविधान सभा की बहसों में उन्होंने मुखर रूप से हिन्दू कोड बिल के तहत महिलाओं के लिए संपत्ति के अधिकार की पैरवी की। इसके अलावा उन्होंने न्यायपालिका की स्वतंत्रता, हिन्दुस्तानी (हिंदी और उर्दू भाषा का मिश्रण) भाषा का राष्ट्रभाषा के तौर पर चयन और राज्य परिषद की सीट के लिए उम्र सीमा 35 साल से कम करके 30 साल करने का भी समर्थन किया।

भारत में लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा के लिए 1958 में गठित ‘नेशनल काउंसिल फॉर वीमेंस एजुकेशन’ की पहली अध्यक्ष दुर्गाबाई देशमुख को ही बनाया गया था। भारतीय न्यायपालिका में ‘फैमिली कोर्ट’ की व्यवस्था लाने का श्रेय भी उन्हीं को दिया जाता है। सामाजिक शोध के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली नई दिल्ली स्थित संस्था ‘काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट’ की स्थापना भी उन्होंने ही की थी।

उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर नई दिल्ली में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर और काउंसिल ऑफ सोशल डेवलपमेंट एंड पॉपुलेशन काउंसिल ऑफ इंडिया की कल्पना की।

गांधी जी के विचारों से प्रभावित, उनके प्रति समर्पित दुर्गाबाई जी का जीवन इस बात की मिसाल है कि गाँधीविचार स्त्री अधिकारों की राह में बाधा नहीं है। जिनकी नजर में जिस कारण से है, वो अलग बात है। 


नारी मुक्ति की दुकान चलाने वाले अधिकांश वर्तमान चेहरे जो करें-कहें, भविष्य के चेहरे जब दिल्ली में पिंक लाइन के साउथ कैम्पस मेट्रो स्टेशन जिसका नाम दुर्गाबाई देशमुख रखा गया है के समीप से गुजरें तो जरा एक बार उन्हें जरूर याद कर लें, आपके आसपास इनसे अंजान बच्चे हों तो उन्हें भी बताएं। वर्ना कोई पुराना सा नाम लगते कोई मॉडर्न नाम इसकी जगह ले लेगा पता भी न चलेगा।  

(संदर्भ तथा तस्वीरें इंटरनेट से संकलित)

Thursday, July 8, 2021

गांधीवाद की छुवन के प्रभाव को जन-जन तक पहुंचाने वाले गिरिराज किशोर

 

आज प्रख्यात साहित्यकार गिरिराज किशोर जी की जन्मतिथि है।



गांधी जी की खुद लिखी आत्मकथा और पुस्तकों के बाद भी यदि उनके बारे में जानने के लिए कोई अपरिहार्य पुस्तक है तो उनमें एक सर्वोपरि स्थान 'पहला गिरमिटिया' का है। एक लेखक के रूप में उनकी अपनी ही पहचान थी और अपनी रचना 'ढ़ाई घर' के लिए वो 'साहित्य अकादमी' से सम्मानित भी हो चुके थे।


शायद दैनंदिन गांधी जी की किसी-न-किसी रूप में वैचारिक हत्या किये जाने की बढ़ती प्रवृत्ति ने उन्हें गांधी जी को अपनी अप्रतिम रचना का विषय बनाने को प्रेरित किया। इस विषय पर लेखन के लिए तथ्यों के संग्रह के जुनून ने उन्हें गांधी जी से जुड़े देश-विदेश के कई स्थानों की अथक यात्रा करवाई। आखिरकार आठ-नौ वर्षों के अथक परिश्रम के पश्चात नौ सौ पृष्ठों का यह दीर्घ उपन्यास हिंदी साहित्य को प्राप्त हुआ और एक धरोहर के रूप में संरक्षित हो गया। 


गांधी जी के भाव किसी को स्पर्श कर दें तो उसका जीवन कैसे प्रभावित हो सकता है, गिरिराज जी इसके प्रत्यक्ष उदाहरण थे। शायद इन दोनों के मध्य भी कोई 'गिरमिट' हो गया रहा हो!


उपन्यास की रचना प्रक्रिया के दौरान  लेखक शैलेश मटियानी जी ने उनसे कहा था, 'गिरिराज जी, गाँधीजी की लाठी लगने की बात है, अगर छू गई तो उपन्यास पूरा हो जाएगा...!' और शायद यह गांधी जी का दिव्य स्पर्श या अदृश्य चयन रहा हो जिसने इस युग के एक जरुरी कार्य के लिए अपने एक सुपात्र का चयन किया और उसने अपने दायित्व का बखूबी निर्वहन भी किया। 


गिरिराज जी का काम यहीं नहीं रुका। 'पहला गिरमिटिया' के कथानक को संपूर्णता देने के लिए उन्होंने 'बा' उपन्यास की भी रचना की जो उनके जीवन पर भी गहन शोध पर आधारित था। 


गांधी जी पर दीर्घ शोध के बावजूद वो गांधीवाद के अंध अनुयायी नहीं थे और इसे लेकर उनके कुछ संशय भी थे, जो वो स्पष्ट प्रकट करते भी रहते थे। उनका यह गुण भी तो गांधी जी के प्रिय गुणों में ही था।


गांधी जी के नेताजी के साथ आधारहीन बातें तो खूब फैलाई जाती हैं, पर गिरिराज किशोर जी द्वारा ही उद्धृत एक प्रसंग उनके घरेलू रिश्तों को भी सामने लाता है। 


"सुभाषचंद्र बोस आइसीएस के बाद जब भारत आए तो सबसे पहले वे गांधी जी से मिलने आश्रम गए। 'महानायक' में भी इस घटना का उल्लेख है। सुभाष बाबू चाय पीते थे। आश्रम में चाय प्रतिबंधित थी। बा उन्हें रसोई में बुलाकर चाय पिला देती थीं। एक दिन जब बा चाय दे रही थीं, तो बापू आ गए। वे बोले कि आश्रम में चाय पीने पर प्रतिबंध है। बा ने जवाब दिया कि आश्रमवासियों के लिए है, सुभाष अति‌थि हैं। उन पर प्रतिबंध लागू नहीं होता। बापू कस्तूर की तरफ देखने लगे। कस्तूरबा ने कहा रसोई पर मेरा अधिकार है... बापू चुपचाप चले गए।"


गिरिराज जी कहते थे कि गांधी जी के बारे में बहुत गलत बातें फैलाई जा रही हैं, जिनके प्रति जागरूकता जरूरी है।


उनकी इस बात को आज और भी गंभीरता से लिये जाने की जरूरत है। 

Friday, June 11, 2021

7 जून: महात्मा गांधी का प्रिटोरिया में आत्मसाक्षात्कार की रात

1893 की 7 जून ही वह तारीख़ थी जब नियति ने मोहनदास करमचंद गांधी को अपने जीवन के वास्तविक अर्थ की तलाश में आगे बढ़ने को प्रवृत्त किया था, या यूं कहें कि उन्हीं की मान्यतानुसार ईश्वर ने अपने काम के लिए उन्हें चुन लिया था।

एक दुबला-पतला कमजोर व्यक्ति, धार्मिक एवं अन्य मानसिक बेड़ियों में जकड़ा हुआ भी, एक साम्राज्यवादी देश के उपनिवेश के सामान्य से निवासी ने शायद ही कभी सोचा हो कि उसे जीवन में कभी इतनी बड़ी भूमिका भी निभानी होगी। शासक मुल्क की श्रेष्ठता से प्रभावित वह भी तो उसकी भाषा, तौर-तरीके, रंग-ढ़ंग सीखने की ही कोशिश कर रहा था। उस समाज में शामिल होने के लिये आवश्यक गुणों को सीखने के प्रयास का जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी किया ही है।


बैरिस्टर बन कर उसे महसूस हुआ होगा कि वो अब उस वर्ग के और करीब आ गया है। लेकिन हमेशा ट्रेन के फर्स्ट क्लास में सफ़र करने वाले इस युवा वकील को टिकट और सारे अधिकार रहते प्रिटोरिया में जो अनुभव हुए उसने इस साम्राज्य के प्रति अब तक की धारणा को पूरी तरह बदल दिया।



वो समझ गए कि शासक और शासित में जमीन-आसमान का अंतर है, उनके रंगभेद की भावना कपड़ों और डिग्री के आधार पर भी कोई अंतर नहीं देखती। उनके लिए सभी काले सिर्फ काले हैं और कुछ नहीं।


मेरी नज़र में तो यह रात उनकी समाधि और आत्ममंथन की रात थी। इस रात उनके जीवन में वह प्रकाश आया जिसमें उन्हें अपने जीवन को आगे ले जाने की दिशा मिली।


अपनी आत्मकथा में इस पल को याद करते हुए उन्होंने लिखा कि-
मैंने अपने धर्म का विचार किया : ' या तो मुझे अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए या लौट जाना चाहिए , नहीं तो जो अपमान हों उन्हें सहकर प्रिटोरिया पहुँचना चाहिए और मुदकमा खत्म करके देश लौट जाना चाहिए । मुकदमा अधूरा छोड़कर भागना तो नामर्दी होगी । मुझे जो कष्ट सहना पड़ा है , सो तो ऊपरी कष्ट है । वह गहराई तक पैठे हुए महारोग का लक्षण है । यह महारोग है रंग - द्वेष । यदि मुझमें इस गहरे रोग को मिटाने की शक्ति हो , तो उस शक्ति का उपयोग मुझे करना चाहिए । ऐसा करते हुए स्वयं जो कष्ट सहने पड़ें सो सब सहने चाहिए और उनका विरोध रंग - द्वेष को मिटाने की दृष्टि से ही करना चाहिए । '
लक्ष्य के प्रति निश्चय तो वो कर ही चुके थे मगर नियति ने उन्हें शासकों की मानसिकता से परिचित करवाने के और भी अवसर रख छोड़े थे।


चार्ल्सटाउन से जोहान्सबर्ग जाते उन्हें घोड़ागाड़ी से जाना था, जिसमें फिर एक बार एक 'कुली' को अन्य यात्रियों के साथ बैठने नहीं दिया गया। उन्हें कोचवान की बगल में बाहर बैठाया गया। इसके बाद भी जब घोड़ा गाड़ी के गोरे अधिकारी को सिगरेट पीने और बाहर की हवा खाने की तलब लगी तो उसने उनसे कोचवान के पैरों के पास बैठने को कहा। इसे उन्होंने स्वीकार करने से इंकार कर दिया। बदले में उन्हें गालियों के साथ बुरी तरह से मारा भी गया, इतना कि अन्य यात्रियों को दया आ गई। यात्रियों की आलोचना ने गोरे को इतना आक्रोशित कर दिया था कि वो उन्हें आगे मजा चखाने की धमकी देता रहा और इधर गांधी जी को यह आशंका हो रही थी कि वो जिंदा मक़ाम तक पहुंच सकेंगे भी या नहीं...!


इन अनुभवों ने रंगभेद और इससे अन्य हिंदुस्तानियों की पीड़ा को समझने के लिए उन्हें और संवेदनशील बनाया। यहां से उनके जीवन में एक बड़ा मोड़ तो आया पर यह भी गौरतलब है कि अपनी, पीड़ा, आक्रोश और क्रोध को उन्होंने मात्र कुछ लोगों से बदला लेने में खर्च नहीं कर दिया, जबकि एक वकील के रूप में भी वो ऐसा कर सकते थे। उन्होंने इसे एक बड़ा रुप दिया। अंग्रेजों से व्यक्तिगत द्वेष न रखते हुए उन्होंने उनके साम्राज्यवादी और रंगभेद नीति का विरोध किया। ट्रेन के तीसरे दर्जे में बैठने को भी उन्होंने प्रतीकात्मक प्रतिरोध का माध्यम बना दिया।


आज उनकी आलोचना इसलिए भी आसान है क्योंकि वैसे किसी आदमी के होने की कल्पना भी वाकई मुश्किल है...

Wednesday, March 17, 2021

दांडी मार्च पर भ्रामक प्रचार और गांधी जी की स्पष्टता

ब्रिटिश हों या कोई भी वर्ग गांधी जी उसकी मनःस्थिति को समझते हुए उसके मानसिक धरातल पर उतर कर उसकी आशंकाओं को दूर करने का प्रयास करते थे। नमक आंदोलन चूंकि अंग्रेजी शासन से असहयोग की दिशा में पहला बड़ा कदम था इसलिए इसके राजनीतिक प्रभावों को लेकर लोगों के पृथक मत भी थे। ऐसे ही एक मत के रूप में मौलाना शौकत अली ने कहा कि स्वतंत्रता आंदोलन स्वराज्य प्राप्ति का नहीं बल्कि मुसलमानों के खिलाफ हिंदू राज्य स्थापित करने का आंदोलन है और इसलिए मुसलमान इससे अलग ही रहें। खबर पढ़ गांधी जी ने उनसे तार के माध्यम से पुष्टि मांगी और मिलने पर इस आंदोलन पर एक गंभीर आरोप के निराकरण का प्रयास किया। यह प्रयास एक आंदोलन को सर्वस्वीकार्य बनाने, सभी की भागीदारी सुनिश्चित करवाने के प्रयास को दर्शाता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह आंदोलन न तो हिंदू राज्य की स्थापना के लिए है न मुस्लिमों के खिलाफ। नमक जैसी सामान्य किन्तु सर्व महत्व की सामग्री को एक आंदोलन का माध्यम बनाने की दूरदर्शिता इससे भी झलकती है कि नमक का इस्तेमाल सभी करते हैं और इसपर कर का प्रभाव भी सभी पर पड़ता है। इसी तथ्य को रेखांकित करते उन्होंने कहा कि इस कर का विरोध करने से किसी की हानि होने वाली नहीं है, परंतु यदि यह विरोध सफल हुआ तो इसका लाभ सभी को समान रूप से मिलेगा। हाँ, इस आंदोलन में भाग लेने का अधिकार सभी का है। मौलाना साहब द्वारा उनपर तीखी टिप्पणी का भी स्पष्ट प्रत्युत्तर देते हुए उन्होंने महत्वपूर्ण बात कही। 'यंग इंडिया' में अपने एक लेख के माध्यम से उन्होंने कहा कि- "जहां तक खुद मुझसे मौलाना साहब की चिढ़ की बात है इसके संबंध में मुझे ज्यादा-कुछ कहने की जरूरत नहीं है। चूंकि मेरे मन में उनके प्रति कोई चिढ़ नहीं है, इसलिए मैं यह भविष्यवाणी करता हूं कि जब उनका क्रोध शांत हो जाएगा और वे देखेंगे कि उन्होंने मुझे जिन अनेक दोषों का भागी माना है उनका दोषी मैं नहीं हूं तो वे फिर मुझको 'अपनी उसी जेब' में रख लेंगे जिस जेब में रहने का सौभाग्य मुझे मानो अभी कल तक प्राप्त था। क्योंकि उनकी जेब से मैं खुद बाहर नहीं आया हूँ। उन्होंने ही मुझे उसमें से निकाल फेंका है। मैं तो आज भी वही नन्हा-सा आदमी हूं जो 1921 में था। अंग्रेजों के प्रतिनिधियों ने हमारे खिलाफ जो ढेर सारे अन्याय किए हैं उस ढेर में अंग्रेज लोग भले ही और भी वृद्धि कर डालें, किन्तु मैं उनका शत्रु नहीं बन सकता। इसी प्रकार मैं मुसलमानों का भी दुश्मन कभी नहीं बन सकता, चाहे उनमें से कोई एक या बहुत-से लोग मेरे अथवा मेरे लोगों के साथ चाहे जैसा व्यवहार करें। मनुष्य की कमियों से मैं इतनी अच्छी तरह वाकिफ हूं कि किसी भी आदमी के खिलाफ, चाहे वह कुछ भी करे, मेरे मन में चिढ़ हो ही नहीं सकती। मेरा उपचार तो यह है कि जहां-कहीं बुराई दिखाई दे, उसे दूर करने की कोशिश करूँ और जिस प्रकार मैं नहीं चाहूंगा कि मुझसे बार-बार जो गलतियां होती हैं उनके लिए कोई मुझे चोट पहुंचाए उसी प्रकार से मैं खुद भी बुराई करनेवालों को चोट पहुंचाना नहीं चाहूंगा।
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