
मेरे ब्लॉग 'धरोहर' पर ताजा प्रविष्टियाँ
Sunday, August 30, 2009
फिर होगी मुलाकात - गांधीजी के साथ

Thursday, August 27, 2009
मुन्नाभाई और गांधीजी

Friday, August 21, 2009
जिन्ना प्रशस्ति: और गांधीजी से चंद सवाल
तस्वीर : साभार गूगल
Sunday, August 9, 2009
भारत छोडो आन्दोलन : और वो 7 अमर शहीद

8 अगस्त 1942 ही वह ऐतिहासिक दिन था, जब धीमे पड़ते स्वतंत्रता संग्राम में नई जान फूंकते हुए गांधीजी ने 'करो-या-मरो' का मंत्र देते हुए अंग्रेजों से भारत छोड़ने का आह्वान किया था। अगले ही दिन यानि 9 अगस्त, 1942 से संपूर्ण भारत में 'भारत छोडो आन्दोलन' का श्रीगणेश हो गया। पहले ही दिन इसके तमाम बड़े नेता नजरबन्द कर लिए गए, मगर सही अर्थों में यह एक व्यापक जनांदोलन के रूप में उभरा। सारे देश में आम जनता ने स्वयं ही इस आन्दोलन की कमान संभाल ली।
ऐसे ही क्रांतिकारी प्रदेशों में से बिहार भी एक था. विधान सभा पर राष्ट्रीयध्वज लहराने की तमन्ना के साथ उमड़ी भीड़ को अंग्रेजों की गोलियों का सामना करना पड़ा। किन्तु न तो भीड़ का उत्साह डिगा न ही उनके हाथ का ध्वज. इस घटना में शहीद हुए 7 नौजवानों जो मात्र 9 - 12 वीं कक्षा के ही छात्र थे के नाम- 'उमाकांत प्रसाद सिन्हा, रामानंद सिंह, सतीश प्रसाद झा, जल्पति कुमार, देवीपद चौधरी, राजेंद्र सिंह तथा रामगोविंद सिंह थे '।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पटना सचिवालय के समक्ष इनकी स्मृति में कांस्य प्रतिमा स्थापित की गई, जो आज भी इन अमर बलिदानियों की पवन स्मृति कराती है।
भारत छोडो आन्दोलन के इस स्मरण दिवस पर इन अमर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजली।
Tuesday, July 7, 2009
गांधीजी के गुरु रूप का स्मरण
द. अफ्रीका प्रवास के दौरान 'टॉलसटॉय आश्रम' में निवास करने वाले बच्चों के शिक्षण के लिए उन्हें शिक्षक की भूमिका भी निभानी पड़ी थी. इस अनुभव ने शिक्षा के क्षेत्र में उन्हें कुछ और प्रयोग तथा मौलिक चिंतन विकसित करने में भी सहयोग दिया. धन, शिक्षकों की कमी तो उनके सामने थी ही, जो शिक्षा के प्रचलित स्वरुप को व्यवहार में लाने में बाधा बन रही थी. जैसाकि गांधीजी स्वयं भी किताबी शिक्षा से चारित्रिक शिक्षा को ज्यादा महत्व देते थे, उन्होंने यही प्रयास यहाँ भी आरम्भ किया.
अक्षर ज्ञान, चारित्रिक शिक्षा के साथ शारीरिक शिक्षा भी उनके लिए समान महत्व रखते थे. इसके अलावे बच्चों को स्वरोजगार के लिए प्रशिक्षित करना भी उन्होंने जरुरी समझा.
गांधीजी के ही शब्दों में- "टॉल्सटॉय आश्रम मे शुरू से ही रिवाज डाला गया था कि जिस काम को हम शिक्षक न करें, वह बालको से न कराया जाय, और बालक जिस काम मे लगे हो, उसमे उनके साथ उसी काम को करनेवाला एक शिक्षक हमेशा रहे. इसलिए बालको ने कुछ सीखा, उमंग के साथ सीखा."
विद्यार्थियों के चारित्रिक और आत्मिक विकास के लिए उन्होंने बुनियादी धार्मिक शिक्षा देना जरुरी समझा. (क्या धर्मनिरपेक्ष देश में छात्रों को हर धर्म की बुनियादी शिक्षा उपलब्ध कराना समरसता का आधार नहीं बनता !)
किन्तु उन्होंने स्पष्ट किया कि इसे वो बुद्धि की शिक्षा का अंग मानते हैं और आत्मा की शिक्षा एक बिल्कुल भिन्न विभाग है. इस आत्मिक शिक्षा के लिए उनका मानना था कि "...आत्मा की कसरत शिक्षक के आचरण द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है...मैं स्वयं झूठ बोलूँ और अपने शिष्यो को सच्चा बनने का प्रयत्न करूँ, तो वह व्यर्थ ही होगा. डरपोक शिक्षक शिष्यो को वीरता नही सिखा सकता. व्यभिचारी शिक्षक शिष्यो को संयम किस प्रकार सिखायेगा ? मैने देखा कि मुझे अपने पास रहने वाले युवको और युवतियो के सम्मुख पदार्थपाठ-सा बन कर रहना चाहिये. इस कारण मेरे शिष्य मेरे शिक्षक बने. मै यह समझा कि मुझे अपने लिए नही , बल्कि उनके लिए अच्छा बनना और रहना चाहिये. अतएव कहा जा सकता है कि टॉल्सटॉय आश्रम का मेरा अधिकतर संयम इन युवको और युवतियों की बदौलत था."
(नैतिक और चारित्रिक शिक्षा के लिए पाठ्यपुस्तकों का बोझ बढ़ाने के समर्थक गांधीजी के इन विचारों पर गौर क्यों नहीं करते !)
शिक्षा के संबंध में गांधीजी के विचारों को अंशतः भी अपनाया जाता तो देश को आज कई सामाजिक और नैतिक समस्याओं से न जूझना पड़ता.
तस्वीर- 'टॉलसटॉय आश्रम' में गांधीजी (साभार गूगल)
Wednesday, May 13, 2009
"गांधीजी से डर किन्हें है"
Thursday, May 7, 2009
'गाँधीजी' और अपनी बात
यह ब्लॉग शुरू करने का मेरा उद्देश्य था कि गांधीजी के विचारों को आज के परिप्रेक्ष्य में रख पाठकों को खुद ही उनकी प्रासंगिकता के सम्बन्ध में निर्णय लेने का विकल्प दे सकूँ. फिर भी बीच -बीच में स्वयं भी आपसे मुखातिब होने की स्थितियां आ ही जाती हैं, और यह परस्पर संवाद के दृष्टिकोण से संभवतः उचित भी है.
प्रतिष्ठित पत्रिका 'आजकल' के जनवरी 2009 अंक में श्री महेंद्र राजा जैन जी का लेख 'महात्मा गाँधी- पिता बनाम राष्ट्रपिता' प्रकाशित हुआ था। इसमें उन्होंने फिल्म 'गाँधी: माई फादर' के माध्यमसे गांधीजी के व्यक्तित्व के एक जटिल पहलू की समीक्षा का प्रयास किया था. निश्चय ही फिल्म काफी साहसिक और भावपूर्ण है, तथा इसकी समीक्षा भी अच्छी की गई है. किन्तु क्या सिर्फ एक फिल्म गाँधी जी जैसे व्यक्तित्व का आईना हो सकती है! एक राष्ट्रपिता की सफलता के पीछे छुपी एक पिता की असफलता को हाईलाइट करने पर आज के प्रगतिशीलों (!) का इतना आग्रह क्यों है ? गांधीजी की जीवन यात्रा एक आम मानव से महामानव बनने की यात्रा है, जो उनके 'सत्य के साथ प्रयोग' से ही स्पष्ट है. तो फिर उनके व्यक्तिगत जीवन में जबरन तांक-झाँक कर जुगुप्सा जगाने और कहीं छुटी गर्द को ज़माने को चीख-चीख कर दिखाने का औचित्य समझ नहीं आता. यदि आप उस धुल को साफ़ नहीं कर सकते तो और कीचड़ फेंक उसका मजमा लगाने का प्रयास क्यों ? व्यावहारिक रूप से भी देखें तो हरिलाल की असफलता के लिए क्या सिर्फ गांधीजी ही दोषी थे! तब फिर आज के अन्य स्टार पिताओं के गुमनाम सुपुत्रों के बारे में क्या राय है आपकी?
अपनी प्रतिक्रिया मैंने पत्र के माध्यम से संपादक तक पहुंचाई थी जो मई, 2009 अंक में प्रकाशित की गई है। मैंने इसमें यह भी कहा कि गांधीजी पर गोली दागने का सिलसिला 60 साल बाद भी जारी है, जो दुखद है.
इस पोस्ट तथा पत्र में यह मेरी व्यक्तिगत प्रतिक्रिया है और इससे किसी को ठेस पहुँचने की स्थिति में मुझे खेद भी है, किन्तु जहाँ तक मैं समझता हूँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार गांधीजी के समर्थकों को भी उतना ही है.....
Tuesday, April 7, 2009
गांधीजी के 'दांडी मार्च' को याद करते हुए
भारत के स्वतंत्रता संघर्ष से आम आदमी की रही दुरी इसे अब तक तार्किक परिणति तक पहुँचने से रोकती आ रही थी. गांधीजी के 'नमक आन्दोलन' ने इस संग्राम को बड़े नेताओं के दायरे से मुक्त कर जन-जन तक पहुंचा दिया.
नमक कानून के भंग होने के साथ ही सारे देश में 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' प्रारंभ हो गया.
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने गांधीजी के 'दांडी मार्च' की तुलना नेपोलियन के 'पेरिस मार्च' से की.
इस आन्दोलन की सबसे बड़ी सफलता थी- महिलाओं की सक्रिय भागीदारी.
सफलता-असफलता के दावों-प्रतिदावों तथा विवादों के बावजूद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से आम आदमी को जोड़ने के लिए याद रखा जायेगा- 6 अप्रैल, 1930 का दांडी मार्च' और 'नमक सत्याग्रह'.
तस्वीर- साभार गूगल
Thursday, April 2, 2009
गाँधीजी के 'हिंद-स्वराज' के सौ वर्ष पर
द. अफ्रीका में सत्याग्रह के दौर में गांधीजी ने एक और लन्दन यात्रा की थी. वहां मिले कई क्रन्तिकारी भारतीय नवयुवकों तथा ऐसी ही विचारधारा वाले द. अफ्रीका के एक वर्ग के सवालों के जवाब के रूप में यह पुस्तक 1909 में लिखी गई थी.
20 अध्यायों में रखे अपने विचारों के माध्यम से गांधीजी ने तथाकथित आधुनिक सभ्यता पर सख्त टिप्पणियां करते हुए अपने सपनों के स्वराज की तस्वीर प्रस्तुत की थी.
सर्वप्रथम यह पुस्तक द. अफ्रीका में छपने वाले साप्ताहिक 'इंडियन ओपिनियन' में प्रकाशित हुई थी. मूल पुस्तक गुजराती में लिखी गई थी, जिसे अंग्रेजी हुकूमत ने प्रतिबंधित कर दिया था. प्रत्युत्तर पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित कर दिया गया, क्योंकि गांधीजी को लगा कि अंग्रेज मित्रों को इस किताब में रखे गए विचारों से परिचित करना उनका फर्ज है.
इस पुस्तक के अनूठेपन का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि गोखले जी ने इसके सम्बन्ध में राय व्यक्त की थी कि - "यह विचार जल्दबाजी में बने हुए हैं, और एक साल भारत में रहने के बाद गांधीजी खुद ही इस पुस्तक का नाश कर देंगे"; लेकिन अपने स्वतंत्रता संघर्ष के 30 साल बाद भी 1938 में पुस्तक के नए संस्करण के प्रकाशन पर गांधीजी ने अपने सन्देश में कहा कि - "यह पुस्तक अगर आज मुझे फिर से लिखनी हो तो कहीं-कहीं मैं इसकी भाषा बदलूँगा, लेकिन....... इन 30 सालों में मुझे इस पुस्तक में बताये हुए विचारों में फेरबदल करने का कुछ भी कारण नहीं मिला."
गांधीजी का मानना था कि- "सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों के स्वीकार से अंत में क्या नतीजा आएगा, उसकी तस्वीर इसमें है. इसे पढ़कर इसके सिद्धांतों को स्वीकार करना चाहिए या त्याग, यह तो पाठक ही तय करें. "
तो क्यों न हम अपनी औपचारिक, सालाना, कर्मकांडप्रिय मनोवृत्ति से ही सही किन्तु एक नजर इस सौ साल पुरे करती धरोहर पर भी डाल लें.
Monday, March 23, 2009
क्रांतिकारियों के प्रति गांधीजी के विचार
12 फरवरी 1925 को 'यंग इंडिया' में गांधीजी द्वारा प्रस्तुत विचारों का सार आपके समक्ष रख रहा हूँ -
"मैं क्रांतिकारियों की वीरता और बलिदान की भावना से इंकार नहीं करता। ... एक निर्दोष व्यक्ति का आत्मबलिदान उन लाखों लोगों के बलिदान से ज्यादा असर पैदा करता है जो दूसरों को मारने की क्रिया में मर जाते हैं.
मैं उनसे धैर्यपूर्वक आग्रह करता हूँ कि वे स्वराज की चिरप्रतीक्षित बाधाओं - चरखों का अपूर्ण प्रचार, हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच मनमुटाव और दलित वर्गों के ऊपर अमानवीय प्रतिबन्ध के प्रति अपना समुचित योगदान करें। यह शायद शानदार काम नहीं है, लेकिन इसके लिए आवश्यक गुण सदा महानतम क्रांतिकारियों में विद्यमान होते हैं.
सरफरोशी की तमन्ना से भरकर फांसी के तख्ते पर झूल जाने की अपेक्षा भूखी जनता के बीच उसके साथ-साथ धीरे-धीरे और शानदार न दिखने वाले तरीके से स्वेक्षापूर्वक भुखमरी का शिकार होना हर हालत में ज्यादा वीरतापूर्ण कृत्य है। "
गांधीजी और क्रांतिकारियों के बीच मतभेद के अनावश्यक विवादों में न पड़ते हुए मैं बस यही दोहराना चाहूँगा कि गांधीजी साध्य के साथ साधनों की भी पवित्रता के पक्ष में थे और निश्चित रूप से इसकी अनिवार्यता मौजूदा दौर में और भी शिद्दत से महसूस की जा रही है.
Tuesday, March 3, 2009
मार्टिन लूथर किंग III और गांधीजी

Monday, February 16, 2009
मार्टिन लूथर किंग और गांधीजी
ओबामा की जीत और मार्टिन लूथर किंग III की 13 दिवसीय भारत यात्रा ने आम लोगों में मार्टिन लूथर किंग और गांधीजी के सम्बन्ध में जिज्ञासा जगा दी है. दरअसल मार्टिन III यह यात्रा अपने पिता की 1959 में हुई भारत यात्रा की स्वर्ण जयंती पर उनकी स्मृतियों को पुनर्जीवित करने के लिए कर रहे हैं. मार्टिन लूथर किंग जूनियर "अमेरिका के गाँधी" के रूप में ख्याति प्राप्त हैं, जिन्होंने नीग्रो समुदाय के प्रति भेदभाव के विरुद्ध सफल अहिंसात्मक आन्दोलन का संचालन किया था; जिसकी बुनियाद पर आज अमेरिकी लोकतंत्र गर्व कर रहा है.
वो गांधीजी की विचारधारा से काफी प्रभावित रहे. अध्ययन काल के दौरान ही उन्होंने गांधीजी के अहिंसक सविनय अवज्ञा आन्दोलन के बारे में सुना. उन्होंने गांधीजी के विचारों पर कुछ अन्य पुस्तकें भी पढीं और आश्वस्त हुए कि सत्य और अहिंसा को नागरिक अधिकार प्राप्त करने के संघर्ष में प्रयोग किया जा सकता है. गांधीजी की इन पंक्तियों ने उन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया कि- " अपनी पीड़ा से हम उन्हें अहसास करा देंगे कि वो अन्याय पर हैं. "
गांधीजी के सत्याग्रह से ही प्रेरित हो उन्होंने अमेरिका में सावर्जनिक बसों में काले-गोरे भेद के विरुद्ध अपना प्रसिद्ध 'बस बहिष्कार आन्दोलन' (1955) चलाया.
गांधीजी को और करीब से समझने के विचार के साथ वो 1959 में भारत यात्रा पर भी आए. यहाँ अपने एक रेडियो संदेश में उन्होंने कहा - " वो आश्वस्त हैं कि न्याय और मानवता के संघर्ष में अहिंसक सत्याग्रह आज पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक है." दरअसल गांधीजी के विचारों ने उनके जीवन को प्रभावित करने वाले कुछ बुनियादी तत्व दिए और किंग ने दिखाया कि गाँधीविचार सिर्फ़ सैद्धांतिक ही नहीं बल्कि व्यवहारिक भी हैं.
1963 में अपने प्रसिद्द 'वाशिंगटन मार्च' में इन्होने अपना प्रेरक "I Have A Dream" भाषण दिया; जिसमें उन्होंने कालों और गोरों के सहअस्तित्व की अपनी उत्कंठा प्रस्तुत की थी.
1964 में उन्हें 'नोबल पुरस्कार' से सम्मानित किया गया.
दुखद संयोग है कि उनके आदर्श गाँधीजी कि तरह उन्हें भी 4/04/1968 को गोली मार दी गई.
उनकी एक प्रिय उक्ति थी- " हम वह नहीं हैं, जो हमें होना चाहिए और हम वह नहीं हैं, जो होने वाले हैं; लेकिन खुदा का शुक्र है कि हम वह भी नहीं हैं, जो हम थे. "
खुदा का वाकई शुक्र है कि ऐसी कोई गोली नहीं बनी जो इन विभूतियों के विचारों को छलनी कर सके. उस महान अहिंसक सेनानी को नमन.
Monday, February 9, 2009
सवाल गांधीजी का !
नाना- नाना, आपने तो आजादी की लडाई को गौर से देखा है, उसमें भाग भी लिया है। आपने देखा! कल एक पार्टी के युवा नेता कह रहे थे कि- "जब-जब उन्हें किसी समस्या का समाधान नहीं दिखता, वो मेज पर लगी गांधीजी की किताब उठा लेते हैं। " आज एक दूसरी पार्टी के नेता कह रहे हैं कि "गांधीजी का विकास मॉडल सर्वश्रेष्ठ है।"
"तो क्या अब गांधीजी के सपनों का भारत बनाने के लिए सभी मिलकर काम करेंगे?"
आप चुप-चाप मुस्कुराते हुए खिड़की से बाहर क्यों देख रहे हैं, कुछ बोलते क्यों नहीं! भविष्य की ओर देख रहे हैं या कहीं अतीत की किसी पुरानी याद में खो गए?
Friday, January 30, 2009
गांधीजी के साथ- गावों की ओर
भारत की आत्मा गावों में बसती रही है, मगर आजादी के बाद अर्थव्यवस्था का केन्द्र शहरों को मान विकास के मॉडल को अपनाया गया, जिसने देश की जड़ें खोखली कर दीं। यही कारण है कि आज विश्व के किसी दूसरे कोने में चले एक झोंके से भी हमारी विकास की ईमारत लड़खडाने लगती है।
भारत की आत्मा को आत्मसात करने वाले गांधीजी ने कहा था कि- " अब तक गाँव वालों ने अपने जीवन की बलि दी है ताकि हम नगरवासी जीवित रह सकें। अब उनके जीवन के लिए हमको अपना जीवन देने का समय आ गया है। ... यदि हमें एक स्वाधीन और आत्मसम्मानी राष्ट्र के रूप में जीवित रहना है तो हमें इस आवश्यक त्याग से पीछे नहीं हटना चाहिए। " "भारत गावों से मिलकर बना है, लेकिन हमारे प्रबुद्ध वर्ग ने उनकी उपेछा की है। ... शहरों को चाहिए कि वे गावों की जीवन-पद्धति को अपनाएं और गावों के लिए अपना जीवन दें। "
गांधीजी के विचारों को ही उनकी विरासत मानते हुए ग्रामोत्थान और 'ग्राम स्वराज' की दिशा में हमारा अंशदान ही उस महानात्मा के प्रति हमारी विनम्र श्रद्धांजलि होगी।
Wednesday, January 28, 2009
विसंगतियों के बीच गांधीजी
पिछले दिनों कुछ ब्लौग्स पर गांधीजी के व्यक्तित्व की तथाकथित विसंगतियों पर काफी चर्चा की गई। गांधीजी का मानना था कि " मूर्खतापूर्ण सुसंगति छोटे दिमागों का हौआ है।"
उन्होंने कहा था - " मैं इस बात की कतई परवाह नहीं करता कि मैं सुसंगत दिखाई दूँ। ... मुझे सिर्फ़ इस बात से सरोकार है कि मैं अपने ईश्वर, अर्थात् सत्य, द्वारा समय-समय पर दिए जाने वाले आदेशों का पालन करने के लिए तत्पर रहूँ।"
अपनी असंगतियों पर दुविधा होने की स्थिति में उनका सुझाव था कि -" यदि किसी को मेरी लिखी किन्ही दो बातों में असंगति दिखाई दे, और फ़िर भी उसे मेरी विवेकशीलता में विश्वास हो, तो उसे उसी विषय पर मेरी बाद की तारीख में लिखी बात को मानना चाहिए।"
ऐसे प्रयोगधर्मी की सोच को स्वीकार करना सहज नहीं मगर उसे समझने की कोशिश तो की ही जा सकती है।
Thursday, January 22, 2009
गांधीजी और गीता
गांधीजी ने अपने लेखों में स्वीकार किया है कि जब भी वो कठिनाइयों में घिरे हैं और कोई मार्ग दिखाई न देने पर 'श्रीमद्द्भाग्वत गीता' ने उन्हें मार्ग दिखाया है। गीता को वो 'आध्यात्मिक निदान ग्रन्थ' (जो उलझनों के कारण ढूंढ़ सके) के रूप में देखते थे। अश्लील और दोयम दर्जे के साहित्य के प्रवाह में बहती जनता को अपने मूल्यों के प्रति जागरूक करने के उद्देश्य से उन्होनें गीता के अनुवाद का निर्णय लिया। इस निर्णय के पीछे उन्होंने अन्य अनुवादकों कि भांति आचरण में अनुभव का दावा न कर अपने ३८ वर्षों के आचरण के प्रयत्न का दावा प्रस्तुत किया है।
उनका मानना था कि गीता में भौतिक युद्ध के वर्णन को उदाहरण बनाकर प्रत्येक मनुष्य के ह्रदय में निरंतर चलनेवाले द्वंदयुद्ध का ही वर्णन किया गया है। उनके अनुसार गीतकार का उद्द्देश्य व्यक्ति को आत्मदर्शन के लिए प्रेरित करना है जिसका माध्यम है- "कर्म के फल का त्याग", यानि 'अनासक्ति'। इसीलिए उन्होंने गीता के अपने अनुवाद को 'अनासक्तियोग' नाम दिया। गांधीजी की इस अनूठी आध्यात्मिक देन के लिए मानवता उनकी आभारी है।
Tuesday, January 20, 2009
गान्धीविचार के मूर्त रूप: अन्ना हजारे
व्यक्ति निर्माण से ग्राम निर्माण और तब स्वाभाविक ही देश निर्माण के गांधीजी के मन्त्र को उन्होंने हकीकत में उतार कर दिखाया, और एक गाँव से आरम्भ उनका यह अभियान आज 85 गावों तक सफलतापूर्वक जारी है।
व्यक्ति निर्माण के लिए मूल मन्त्र देते हुए उन्होंने युवाओं में उत्तम चरित्र, शुद्ध आचार-विचार, निष्कलंक जीवन व त्याग की भावना विकसित करने व निर्भयता को आत्मसात कर आम आदमी की सेवा को आदर्श के रूप में स्वीकार करने का आह्वान किया.
Wednesday, January 14, 2009
बोअर युद्ध और गांधीजी
द. अफ्रीका में हिन्दुस्तानियों पर जो आक्षेप लगाये जाते थे उनमें से एक यह भी था कि - "ये लोग द. अफ्रीका में केवल पैसे जमा करने आते हैं। देश पर यदि आक्रमण हो तो ये लोग हमारी थोडी भी मदद करने वाले नहीं हैं। उस समय हमें अपने साथ-साथ इनकी भी रक्षा करनी होगी।"
बोअर युद्ध इन आरोपों को निराधार साबित करने का अच्छा अवसर हो सकता था। इसलिए गांधीजी ने हिन्दुस्तानी कॉम का आह्वान करते हुए कहा- " द. अफ्रीका में हमारा अस्तित्व केवल ब्रिटिश प्रजाजनों के नाते ही है। यहाँ अंग्रेज हमें दुःख देते हैं, इसलिए अवसर आने पर भी यदि हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे तो यह हमारे मनुष्यत्व के लिए शोभा की बात नहीं है। इस अवसर को हाथ से जाने देने का मतलब होगा स्वयं उस आक्षेप को सिद्ध करना। प्रजा के नाते हमारा धर्म यही है कि युद्ध के गुण-दोषों का विचार किए बिना उसमें यथा शक्ति सहायता करें। "
थोड़े तर्क-वितर्क के बाद हिन्दुस्तानी समुदाय ने इस दलील को स्वीकार कर लिया। इन्हे युद्ध का प्रशिक्षण तो था नहीं, इसलिए कुछ मुख्य लोगों ने घायलों और बीमारों की देख-रेख की तालीम ली और सरकार से युद्ध में जाने की अनुमति मांगी। इसका सरकार पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा, किंतु उस समय ये मांगें स्वीकार नहीं की गयीं। बाद में जब बोअरों की शक्ति बढती गई तो एम्बुलेंस कोर के रूप में इनकी सेवाएं स्वीकार की गयीं।
इस अकल्पनीय भागीदारी के चलते जिन अंग्रेजों ने हिन्दुस्तानी -विरोधी आन्दोलन में भाग लिया था, उनके भी ह्रदय पिघला दिए। सरकार की और से एम्बुलेंस कोर के ३७ नेताओं को युद्ध पदक भी दिए गए।
निःस्वार्थ सेवा से शासकों का अपने प्रति ह्रदय परिवर्तन के प्रयोग का विश्व इतिहास में यह एक अभूतपूर्व उदाहरण है, जो वर्तमान सन्दर्भ में न सिर्फ़ हमारे देश बल्कि वैश्विक परिदृश्य में भी पूर्णतः प्रासंगिक है।
Monday, January 12, 2009
कुछ सुना- ' गांधीजी अंग्रेजी सेना में थे !'
Friday, January 9, 2009
इमाम हुसैन की शहादत और गांधीजी
गांधीजी अपने संपर्क के व्यक्तियों से विभिन्न धर्मों के मूल तत्वों पर विचार-विमर्श करते रहते थे। इस्लाम और कुरान पर अपनी चर्चा से वो इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि "खुदा को संयम ज्यादा प्यारा है, और यही प्रेम का नियम है। यही सत्याग्रह है। हिंसा मानव दुर्बलता के लिए एक रियायत है, सत्याग्रह एक कर्तव्य है।"
इस्लाम के सम्बन्ध में उनका मत था कि 'इस्लाम' का अर्थ ही है 'शान्ति' या 'अहिंसा'। कुरान में भी प्रतिशोध से सहिष्णुता को श्रेष्ठ बताया गया है। इमाम हुसैन की शहादत को सच्चाई के लिए आत्मोत्सर्ग का विलक्षण उदाहरण मानते हुए गांधीजी एक सच्चे सत्याग्रही में अपने साध्य की प्राप्ति के लिए बलिदान की इसी उच्चतम भावना की उपस्थिति चाहते थे।
इमाम हुसैन की शहादत को नमन करते हुए हमारी ओर से भी श्रद्धांजलि।
Monday, January 5, 2009
हिंसा, कायरता और गांधीजी
पिछली पोस्ट पर आई टिप्पणियों को देख जहाँ इस ब्लॉग को लेकर उत्साह बढ़ा वहीँ यह आभास भी हुआ कि गाँधी जी के कई विचार सही परिप्रेक्ष्य में लोगों तक पहुँच नहीं पाए हैं। मेरे इस ब्लॉग का उद्देश्य गांधीजी का प्रवक्ता बनना या उनके विचारों पर अन्धविश्वास फैलाना नहीं है। कोई भी विचार कभी संपूर्ण नहीं होता। हमें उस विचार को जहाँ तक हमारी अंतरात्मा स्वीकृति दे वहीँ तक स्वीकार करना चाहिए, मगर अपनी सुविधा के अनुसार उसकी मनमाफिक व्याख्या भी नहीं करनी चाहिए, जैसा की हमारे यहाँ आम तौर पर होता है।
गांधीजी ने कहा था कि - "यदि किसी को मेरी लिखी किन्ही दो बातों में असंगति दिखाई दे और फ़िर भी उसे मेरी विवेकशीलता में विश्वास हो, तो उसे उसी विषय पर मेरी बाद की तारीख में लिखी बात को मानना चाहिए।"
अपनी असंगतियों को खुलकर स्वीकार करने वाले गांधीजी की हिंसा और कायरता के सन्दर्भ में व्यक्त विचारों का यहाँ जिक्र उचित होगा-
(i) "समूची प्रजाति के नपुंसक हो जाने का खतरा उठाने के मुकाबले मैं हिंसा को हज़ार गुना बेहतर समझता हूं।"
(ii) "जहाँ केवल कायरता और हिंसा में से एक का चुनाव करना है वहां मैं हिंसा को चुनुँगा। कायर की भांति अपने अपमान का विवश साक्षी बनने की अपेक्षा भारत के लिए अपने सम्मान की रक्षार्थ शस्त्र उठा लेना मैं ज्यादा अच्छा समझूंगा। लेकिन मेरा विश्वास है की अहिंसा हिंसा से अत्यधिक श्रेष्ठ है।"
इस प्रकार गाँधी जी की अहिंसा कायरों की ढाल नहीं थी बल्कि वीरों का आभूषण थी। अपनी शक्ति को पहचानते हुए भी हिंसा का सहारा न लेना गाँधी जी का आदर्श था, जिसपर आज भी देश चलने की कोशिश कर रहा है। समस्या सिर्फ़ उनके विचारों को सन्दर्भ से हटाकर देखने और अधूरी व्याख्या की है।
[ आशा है गांधीजी के इन विचारों की व्याख्या हिंसा के समर्थन में नहीं की जायेगी। ]
Thursday, January 1, 2009
भूल क्यों नहीं जाते गांधीजी को?

भूल क्यों नहीं जाते गांधीजी को?
मेरे मन में वर्षों से यह सवाल उठता रहा है की कोई भी नया विचार चाहे वह उपभोक्तावादी रहा हो (मैक्सिम, मेक्डोनाल्ड आदि ) या राजनीतिक, आध्यात्मिक अथवा धार्मिक ही क्यों न हो, गांधीजी के विचारों को निशाना बनाने की कोशिश क्यों करता है! जिस व्यक्ति को मरे हुए ६० साल हो चुके हैं, उससे अब इन विचारों या व्यक्तित्व को क्या भय हो सकता है! दुबले-पतले गांधीजी के विचारों ने भला कितनी जगह घेर रखी है कि किसी भी नए विचार को अपनी जगह बनाने के लिए गांधीजी को सरकाने की कोशिश करनी पड़ती है! अगर गांधीजी कि सोच, उनके विचार और उनका योगदान अप्रासंगिक और अव्यवहारिक है तो उसपर बार-बार प्रहार क्यों? भूल क्यों नही जाते उस गाँधी को? आख़िर उनके समकक्ष और उनके पूर्व के भी कई व्यक्तित्व और सोच को तो विस्मृत कर ही दिया गया है।
मगर यहाँ तो इसके विपरीत सारे विश्व में गांधीजी को जानने, समझने और अनुसरण करने के प्रयास किए जा रहे हैं। यह सारे प्रयत्न स्वैक्षिक हैं और स्थानीय परिस्थितियों से प्रभावित हैं, किसी संस्था या व्यक्ति द्वारा प्रायोजित नहीं। यह तथ्य इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि गांधीजी के विचार आज भी प्रासंगिक और व्यावहारिक हैं तथा इन्हे किसी प्रायोजित बैसाखी कि जरुरत नहीं।
गाँधीजी के विचारों में आज विश्व का एक बड़ा भाग विशेषकर युवा वर्ग आशा कि किरण देखता है। बापू के विचार एक वैश्विक धरोहर हैं और इन विचारों कि जितनी जरुरत वर्तमान विश्व में है उतनी और कभी नही रही। महात्मा गाँधी के विचारों को वर्तमान विश्व के परिप्रेक्ष्य में समझने और साझा करने का प्रयास है यह ब्लॉग। आशा है यह प्रयास सुधी व जागरूक व्यक्तित्वों को ध्यानाकर्षित करने में सफल होगा।